ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Friday, September 30, 2011

मूक समाज में जान की कीमत सिर्फ 27 रूपए !

दो जुनूनियो ने 'बीमारू' राज्य से वैभव नगरी गुरुगाँव मजदूरी करने आये, एक टोलकर्मी को महज इस लिए मार दिया क्यूंकि वो उनसे टोल मांगने की हिमाकत कर रहा था. वैसे समाज के लिए ये एक और न्यूज़ स्टोरी है


जान की कीमत लगा दी गई है मात्र २७ रुपये, इससे सस्ती कीमत पर आपको जान इस महंगाई के युग में कही नहीं मिलेगी. यहाँ इस जूनून के बाज़ार में जान सुलभ है, यहाँ हर तरह की जान मिल जायेगी, तरह तरह से ली जाने वाली जान बन्दुक गोली , तलवार, त्रिशूल, मजहबी जूनून, रोड रेज, या दहेजी सब उपलब्ध है. इस बाज़ार में संवेदना, पीड़ा दुर्लभ कमोडिटी है तब ऐसे में जुनूनी करें भी तो क्या करें व्यापार तो करना ही है ना, सो जान का कारोबार ही सही.

इस मार्केट में किसी ने ये नियम नहीं लिखा की की जान लेना पाप है, जान की कीमत लगाना गुनाह है. इस बाज़ार में इंसानियत शर्मिंदा होना किसी को मालूम नहीं यहाँ इंसानियत के वजूद को अभी जन्म लेना है. अभी वक़्त आना है की किसी बेवा, माँ या मजलूम बच्चो के बारें में सोचा जा सके, असल में हमारी तिजारत शुरू ही वह से होती है जहा इन जैसे मजलूमों की मजबूरियाँ का आगाज़ होता है .

कुछ लोग चाँद सी उंचाई को तय कर चुकें है और कुछ नैनो तकनीकि जैसे सूक्ष्म हो गयें है पर शुक्र है इस जुनूनी बाज़ार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है यहाँ आज भी जुनूनी जात-पात , उंच-नीच , धर्म-बिरादरी, झूठी- शान रिवायत के आदिम युग में है जहाँ इंसान ही इंसान का शिकार कर रहा है और सरलता से जाने मुहैय्या करा रहा है.

ये 'मानवता' नामक केमिकल लोचा ही असल में सब बुराइयों की जड़ है, पर इससे किसी जुनूनी पर इसका कोई असर नहीं होता. इन पर जब भी मुश्किलें या जूनून सवार होता है ये बंदूक ले स्कूलों में फायरिंग कर देतें है या चुपकें से कही धमाके कर हजारो को बिलखता छोड़ निकल जाते है, इन्हें तो बस जाने चाहियें. इनकें यहाँ अभी भी गीता कुरान का पाठ या इंसानी हकूको के मतलब समझायें जाने जरूरी नहीं समझे गए है. यहाँ कोई किताब ये नहीं कहती की एक बेगुनाह को मारना पूरी इंसानियत को मारने के समान है.

लेकिन फिर भी ये जुनूनी उन समाजो से बेहतर है जो इन सब बातों को पढने लिखने सुनने और मानने का दावा करतें है पर इंसान की जान को रद्दी समझतें है. ये ऐसे सफेदपोश जुल्म करते है की बदस्तूर हिटलर, लादेन, सद्दाम, प्रभाकरण दिए जा सके. ये सफेदपोश है अभिजय्त्य है सत्तासुधा प्राप्त है वे इन जुनूनियों पर जंगली होने का आरोप लगाते है पर वे सब भूल जाते है की वे ज्यादा बडे गुनाहगार है. वे सब चुप खड़ें रहतें है जब कोई दसें का शिकार हो छटपटाता सड़क पर पड़ा रहता है, वे चुप रहतें है जब अपाहिज कन्या, रेल कम्पार्टमेंट में रुसवा होती है, वे चुप रहतें है, जब कभी कोई 'सनकी भीड़' मजलूमों पर टूट पड़ती है वे घरो में दुबक जातें है, क्योंकि वे भगत सिंह या संदीप उन्नीकृष्णन नहीं, वे 'सभ्य' है.

झाँके, निहारे अपने को आइने में, और पूछे अपने आप से क्यों हज़ारो की भीड़ महिलाओं को नग्न कर घुमाती है, क्यूँ पुलिस अधिकारी एक विक्षिप्त को पीटता है तब हम ताली बजाकर मजा लेतें है, फिर क्यों हम उस जुनूनी को इंसानियत का दुश्मन कहें जो इंसानी जान को २७ रुपये के मोल में तौलता है.

क्या उस टोल पर गाड़ियों की कतार में कोई इंसान नहीं था, क्या भरी टोल पर हर कोई जुनूनी था जानवर था या सारे अंधे वहां गाड़ी चला रहे थे, ये सवाल है उस तीन महीने की सुहागन जो अब विधवा कहलाने को अभिशप्त होगी, उस सभ्य समाज से जो उस जुनूनी से ज्यादा पाक साफ़ है. मानो वो जुनूनी इन खामोश सभ्यों के मुंह पर तमाचा मारकर कह गया हो तुम लोग ख़ाक जीतें हो, यूँही कहतें हो जान अनमोल है बेशकीमती है कहतें है. ये दुनिया तुम्हारा नहीं हमारा बाज़ार है और यहाँ जुनूनी कानून ही चलेगा, जब चाहें जैसे चाहें जान की कीमत लगा सकतें है. गोया तुम्हारें सफेदपोश उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है, दहकती सुबह ,खौलता आसमाँ है, तुम्हारी खामोशी की रोशनी में बहुत इनकी आस जी चुकी हैं

http://www.youtube.com/watch?v=MoNb3vx94gE

Wednesday, September 21, 2011

भविष्य की इबारत लिखती तीन कहानियां

इस इबारत की पहली कहानी

धृतराष्ट्र के 'कृष्ण' घिर गए है, जनता पार्टी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने आज 21 सितम्बर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में एक पत्र दिखाया जो 25 मार्च, 2011 को प्रणब दा के वित्त मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखा था . उसमे लिखा था कि अगर पूर्व वित्तमंत्री चाहते तो, 2G स्पेक्ट्रम की 'पहले आओ, पहले पाओ' की जगह उचित कीमत पर नीलामी की जा सकती थी, यानि पत्र के जरिये प्रणब दा ने उस समय के वित्तमंत्री पी चिदंबरम के ऊपर सारी जिम्मेवारी डाल दी थी. प्रधानमंत्री कार्यालय से उदय गए इस पत्र से अब ये जानकारी सार्वजनिक हो गयी है तो सवाल खड़ें हुए है, अगर सवाल है तो स्वाभाविक रूप से मीडिया और देश में वे उठेंगे ही, फिर लाजमी है की बचने के लिए कुछ गिरफ्तारिया या इस्तीफे होंगे. कथा सार मनमोहन दौर अब गया समझिये , ऐसे में अगर जोड़ तोड़ कर कांग्रेस की सरकार बनती भी है तो उस सरकार का नेतृत्व राहुल न करना चाहें तब प्रणब , चिदंबरम और अंटोनी की प्रधानमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार है फिलहाल इस रेस में अब प्रणब दा अपने इस पैंतरे से सबसे आगे हो गयें है.

इस हफ्ते एक बात और साबित हुई है की सीताराम केसरी दौर के बाद सोनिया नेतृत्व अपने सबसे कमजोर स्तिथि में पहुँच गया है जहा उनके मंत्रियो की अनबन सार्वजानिक हो गयी है. ऐसा नहीं की इनका अंदेशा जनता को पहले नहीं था अभी हाल फिलहाल में अन्ना आन्दोलन के दौरान पूर्व इन्कम टैक्स कमिश्नर विश्वबंधु गुप्ता के अनुमानों से भी यही लगा था, जब उन्होंने कहा था आज की राहुल गाँधी को चिदंबरम और सिब्बल ने अन्ना से बात करने से रोक लिया है और वे दोनों ही अन्ना पर कड़ें फैसले चाहते है ,शायद इसी बात की तरफ इशारा इसी हफ्ते किरण बेदी के एक ब्यान से भी होती है जब उन्होंने कहा था की राहुल ने हमें निराश किया था. अन्ना आन्दोलन के मुश्किल वक्त में कांग्रेस की तरफ इन दोनों से इतर नारायणसामी जी ने लोकपाल मुद्दे पर बागडोर संभाली थी, फिर जब संसद सत्र चालु हुआ तब कही जाकर चिदंबरम के उलट सोनिया ने प्रणब दा की अगुवाई में लोकसभा में अन्ना के प्रति नरम रुख अपनाने की राय को तरजीह दी. वैसे चिदंबरम प्रणब के इन पैंतरों से वाकिफ नहीं थे, ऐसा शायद ना हो और हो सकता है इसी पत्र की सुचना के बाद ही प्रणब के कांफ्रेंस हाल में मायक्रोफोन लगा, बगिंग हुई हो. उस वक़्त भी वित्त मंत्रालय का शक गृह मंत्रालय पर था मगर दबी छुपी जुबान में और दो मंत्रियो के टकराव के पहले संकेत मिले थे वो मामला तो रफा दफा हुआ पर स्वामी द्वारा इस प्रत्यक्ष प्रमाण के बाद तो इन सारे कयासों को विराम लगा दिया है के सब कुछ शांत है सरकार में.

इस इबारत की दुसरी कहानी

इस दूसरी कहानी के महानायक है श्री लाल कृष्ण आडवाणी जिनके लिए शायद नायक शब्द छोटा हो, क्योंकी अपने महत्वाकांक्षा के रथ पर कोई उनसा ही विरला इस उम्र में सवार हो सकता है. बचपन में एक कहानी पढ़ी थी की कैसे एक बादशाह जो की दक्षिण भारत विजय अभियान पर थे, ने गुप्तचरों से ये जानने के बाद की दुश्मन की सेना बड़ी विशाल है इस बात पर उन्होंने युद्ध किये बिना वापस लौटने का मन बनाया था. अपने विवेक को आगे करते हुए उन्होंने वापस जाने से पहले एक बार दुश्मन सेना को अपनी नज़र से आंकने का फैसला किया . वे दबे छुपे रूप में विरोधी कैम्प में गए, वहा रात के अँधेरे में उन्होंने देखा की दक्कन की सेना में अलग अलग चूल्हे जल रहे थे , उन्होने ये देख इस बात का अंदाजा लगाने में ज्यादा समय नहीं लिया की जाति बिरादरी में बँटी हुई ये सेना इकट्ठे होकर एक टीम की तरह से लड़ नहीं सकती और अगली सुबह उन्होंने वाकई वो युद्ध जीत लिया. फिल्म चक दे के कबीर खान की लडकियों अपनी हॉकी टीम को राज्य, भाषाई तौर पर बँटी पाती तो उस कमजोर आंकी जाने वाली टीम को कभी अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला जीता नहीं सकती थी. एक दो बात जो फिल्मकार दिखाना भूल गए या विवादों के पचड़ें में नहीं पड़ना चाहते थे, इसलिए शायद उसको नहीं दिखाया वो था जाति और मज़हब में टीम का बंटना. लगभग हर भारतीय टीम इन चार चीजों पर बंट-सिमट चुकी है , तब ऐसे में भारतीय राजनैतिक टीम किस प्रकार चीनी ड्रैगन का सामना कर सकेगी . ये चीनी ड्रैगन जो हमारे देश को पर्ल स्ट्रिंग यानी मोती की माला मे फाँस रहा है. इस चीनी माला, जिसके मोती है राष्ट्रपति प्रेमदास का संसदीय क्षेत्र व् बंदरगाह हम्बनटोटा (श्रीलंका ), बंदरगाह चिट्टागाँव (बंगलादेश), बन्दरगाह ग्वादर (बलोचिस्तान) , नौसैनिक अड्डे कोको द्वीप (ब्रह्मदेश) हैं भारतीय तेल, रसद व् अन्य नैविक सुविधाओं का गला कभी भी घोंट सकता हैं. ये चीनी ड्रैगन पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में मजदूरों की जगह सेना कर्मी भेज रहा है , तमांग लद्दाख में हमारी चौकियो व् बंकरों को उड़ा देता हैं, जिसके षड़यंत्र के ताज़ा संकेत हमारे सामरिक मित्र विएतनाम की संप्रभुता पर हो रहे हमलें और हमारी उर्जा के ताज़ातरीन स्त्रोत दक्षिण चीनी सागर में अंकुश लागने की धमकी हैं. साथ ही एक साल पहले जाहिर हुई चीनी थिंक टैंक की वो रिपोर्ट जिसमे चीन में बढ़ती हुई भारत के प्रती नफरत व् चीन के तेज़ी से बिगड्तें हुए आन्तरिक हालात उसकी व्यापार नीति , श्रम नीति और सामाजिक नीति में बढते हुए बोझ व् उसका बढ़ता क्षेत्रीय असंतोष , इन से ध्यान हटाने के लिए चीन की जल्द ही भारत से युद्ध हो सकने की भविष्यवाणी , भारत को तैयार रहने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सन्देश है

अब ऐसी परिस्तिथी में जब दुश्मन ललकार रहा हो तब दूध- बादाम- च्यवनप्राश खाकर अपने शरीर को मजबूत बनाने की जगह क्या आडवाणीजी की ये रथ यात्रा देश के धार्मिक ताने बाने को कमजोर नहीं कर देगी. इन मुश्किल हालातों में ,नेहरु को पंचशील मात्र का जाप कर तन्द्रा में लीन होकर चीनी आहट को नकारने का आरोप लगाने वालो को मैं ये बता दूँ की ये कोई आमिर की फिल्म नहीं की जहा उन्हें अपना घर बचाने के लिए भारत को किसी सलीम की जरूरत नहीं.

इस इबारत की तीसरी कहानी

अब जब पहली कहानी का सार ये था की मनमोहन सिंह की इमानदारी को कॉमन वैल्थ का दाग लग चुका है और उनके अर्थशास्त्रीय ज्ञान पर महंगाई का काला बादल छा गया है और इन दोनों बातो से उनके उस दावे की जिसमे उन्होंने कहा था के 'मैं कमजोर प्रधान मंत्री नहीं' की हवा निकल गयी है. जनता जनार्दन दबे छिपे रूप से राजा, और चिदंबरम वाले २ जी घोटाले पर उनकी धीमीगति से आगे बढने पर और जानते बुझते वाले सहयोगी दलों के मंत्रियो के भ्रस्टाचार पर मौन धारण करने पर उनके धृतराष्ट्र होने बात करने लगी हो तब ऐसे में उनका तीसरी बार जीतकर आना संभव नहीं लग रहा है . विकिलीक्स पहलें ही इस सरकार और सोनिया के नेतृत्व को कमजोर बता चुके है, प्रणब- चिदम्बरम की टकराहट, जगन्मोहन जैसे राजनैतिक नौसीखिए की बगावत, गुरुदास कामत का मंत्रिपरिषद त्याग से यही ये सिद्ध भी हो रहा है बाकी की पोल अन्ना आन्दोलन खोल चुका है. सरकार की चंहु ओर फजीहत हो रही है, उसके बचाव में अक्सर खड़ें दिखाए देने वाले समर्थक क्षेत्रीय दल के प्रमुखों जैसे लालू, करूणानिधि और शरद का कद खुद कांग्रेस कम कर चुकी है और सरकार के प्रति उदासीन हो चुकें है. मौजूदा समय में जो युपीयें सरकार कभी विपक्ष के कमजोर होने पर फूली रहती थी , हताशा में है. ऐसे में तीसरी कहानी के दो सूत्रधार एंट्री लेतें है दोनों ही विपक्ष की तरफ से खाली पड़ें प्रधानमंत्री पद की वैकल्पिक लड़ाई में कूद चुकें है एक ने अभी अभी राजनैतिक यज्ञ संपन्न किया है और उन्होंने अपनी कड़क हिंदुत्व की छवि की आहुति इस यज्ञ में डाली है साथ ही अपनी विजय के अश्वमेध को भी दौडाने की भी घोषणा की है. वहीँ फर्स्ट मूवर के फायदे को खो चुका दूसरा सूत्रधार जो दूर बैठा पहले सूत्रधार का मखौल उड़ा रहा था, अपने प्रतिद्वंदी सूत्रधार के यज्ञ को मिले समर्थन से, कही किंग मेकर लोग दिग्भ्रमित न हो जायें तो उसने भी अपने अश्वमेघ की हुंकार भर दी है.

जी हां ये अश्वमेध बेतिया, बिहार से शुरू होगा अगले महीने और जिसके सूत्रधार है बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार जो पहले यज्ञ करने वाले सूत्रधार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पटखनी दे विपक्ष के जितने की स्तिथि में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन सकते है. प्रधान मंत्री पद का बन्दर बाँट नहीं हो सकता इस लिए दोनों अपनी अपनी मजबूती सिद्ध करने चल पडे है एक संघ के आशीर्वाद तले है तो दूसरा सेकुलरवाद से पोषित है. जंगल का नियम है एक को हटना होगा देखें संघ और सेकुलरवाद की इस अन्दुरुनी लड़ाई में विजय किसे मिलेगी

लेन देन की भावना से नहीं उत्कर्ष होगा नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का


by Puja Shukla on Tuesday, September 20, 2011 at 11:35pm

PM मनमोहन अमर्त्य को NIU का परामर्शदाता बनाते है तो बदले में अमर्त्य मनमोहन की बिटिया NIU के advisory council में आती है

Accusationary Politics of Digvijay Singh

by Puja Shukla on Tuesday, September 6, 2011 at 8:35am

Anna has rightly placed himself as anti establishment voice, the rise of his movement and massive support across the length and breadth of the country has shown that parliamentary process needed to be more transparent and people inclusive. The so called lawmakers have mostly left lawmaking into select few as per their party line, but what about peoples aspiration? If someone speaks about their aspirations he has to bring character certificate, clear all his dues, face privilege motions and so on... The parliamentary democracy cant be dictatorial neither can doubt on peoples agenda. What Digvijay is doing is taking backseat on issues and pricking on non issues. Let me read out one important law IMDT Act 1983 passed by parliament for Assam : Under the Act, the burden of proving the citizenship or otherwise rested on the accuser and the police, not the accused; the accuser must reside within a 3 km radius of the accused.. The Parliament had consensually recognised the rights of accused and contained frivolous complaints, Digvijay is accusing everyone personally and slipping without any proofs, the onus is transferred to accused to prove themselves clean.

Monday, July 25, 2011

शिक्षा का रंग



भारत में शिक्षा का रंग बदल रहा है शुरुआत अर्जुन सिंह ने की शिक्षा का अल्प्संख्यकीकरण करके, फिर तो रातो रात डेल्ही स्तिथ जामिया, संत स्टेफेन और 4 सिखों के कालेज रंगीन हो गए. कर्नाटका में अब गीता पाठ होगा, जिससे मुस्लिम दुखी है पर वे कुरान पढ़ाने वाले मदरसों के लिए सरकारी ग्रांट लेंगे. वैसे बात अभी मुस्लिम सिख जैन आदि तक ही है कौन जाने ये कल शिया, सुन्नी, कादियानी, सहजधारी, श्वेताम्बर,दिगंबर आदि में तब्दील हो जाएँ.

अब सिखों के चार कालेज जो दिल्ली यूनिवर्सिटी के अनुसार सबको सामान अवसर देने की शर्त पर चालु हुए थे व् विभिन्न सिख गुरुओं के नामपर है जिन्होंने बिना भेदभाव के लंगर व् गुरुद्वारों में सबको सांझा किया. वर्षो से खेती तकनीक व् खेती मजदूरों पे शोध करने का दावा करने वाला allahabad agriculture institute में से allahabad निकल जाता है और और पादरी सैम हिग्गिन बोटम का नाम जाता है व् कालेज में शोध कम और आस पास के निर्धन मजदूरों को पकड़ "सन्डे मास" अधिक मनाया जाने लगा है

DPS
को एक इसी पादरी ने शुरू किया शुक्र है वो एक ट्रस्ट है जिसके सर्वेसर्वा अल्पसंख्यक मंत्री है नहीं तो अंग्रेजी गिटपिटाने ने वालें लिबरल, खूब रोना रोते जैसे वे संत स्टेफेन के जाने पर रोये थे अन्य किसी संस्थाओ को उन्हें अपने हाथ से निकलने का कभी मलाल नहीं होगा क्यूंकि वहां OBC दलितों,आदिवासियों का नुक्सान हुआ है

सवाल यह यह है की शिक्षा का इसी तरह का ध्रुविकर्ण होता रह तब कल को शिक्षा के राजकीय सलेबस को बदल हर धर्म के नुमैन्देय अपनी मज़हबी सहूलियतो की तरह शिक्षा को मज़हबी रंग देना शुरू कर देंगे . दर ये भी है की स्वायतता के नाम पर हर धर्मिक शिक्षा केंद्र का अपना बोर्ड होगा अपनी पद्धति होगी तब वो राष्ट्रीय मानको को कैसे एकरूप कर पाएंगे . इन तरह के प्रयासों से क्या हम सर्व शिक्षा अभियान को प्राप्त कर सकेंगे.

Sunday, July 10, 2011

राहुल गाँधी : राजकुमार या राजनैतिक विकल्प


‎40 डिग्री की धूप में पदयात्रा कोई मजाक नहीं अगर राहुल गाँधी पदयात्रा कर रहे है तो वे सही मायनों में क्षुद्र राजनीती से उठकर विषयवस्तु की राजनीती कर रहे है. अन्य नेता / नेत्री पुष्पक विमान से ही उड़ना चाहती है तो वह उनकी निजी निर्णय है पर तब वे राहुल पर कटाक्ष करने के अधिकारी भी नहीं रहतें.

अगर भारतीय राजनीती के विपक्ष को देखें तो सबसे बडे विपक्षी नेता आडवाणीजी हारकर कोने में बैठे है, कल्याणसिंह अप्रासंगिक हो चुके हैं। 'एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो' का नारा देने वालीं उमा भारती ने स्वयं धक्के खाएं है, जोशी जी में अब वो जोश नहीं, राजनाथ व् सुषमा स्वराज राज्नातितिक रूप से सुरक्षित सीटो पर चुनी गयें है, जेटली का कोई जनाधार नहीं, मोदी सर्वमान्य नहीं अब विपक्ष के पास नेतृत्व नहीं है तब राहुल गाँधी अपने को विकल्प के तौर रख रहे है तो क्या बुरा कर रहे है.कुल मिलकर सिवाय मोदी के भाजपा में नेतृत्व का अभाव है और मोदीजी पूरे देश के नेता क्यों नही बन सकतें ये प्रश्न अगर दिल से पूछें तो उचित उत्तर अवश्य मिलेगा ,वैसे केवल मोदी ही बीजेपी में ऐसे नेता हैं जिन्हें पूरे देश में लोग जानते हैं. बीजेपी में उच्चपदासीन नेता बिना पार्टी को जीताए प्रधान मंत्री बनना चाहते हैं कि उनके लिए हर नेता छोटा है. बीजेपी के संचालको को कड़े फैसले लेने होंगे वरना विपक्ष के तौर पर भी उनकी भूमिका सिमित हो जायेगी.

राहुल का विकल्प या तो मायावती हो सकती है या फिर गाँधी को सिर्फ गांधी ही काट सकतें है मायावती सी बी आई से मैनेज हो रही है और वरुण गाँधी को मीडिया ने सीमित कर दिया है पर ये दोनों ही बाध्यताएं सिर्फ वक्ती है दोनों में ही करिश्मा और क्षमता है

राष्ट्रीय जनगणना सन् २०११

जातिवाद के विष का शमन किया जाय और उसे भड़काया न जाय

जनगणना की स्वाभाविक प्रक्रिया से संकीर्ण स्वार्थों को दूर ही रखा जाय

...भारत के राष्ट्रीय जनगणना सन् २०११ की तैयारी चल रही है । जनगणना के रिकार्ड में हर नागरिक की जाति भी अंकित की जाये या न की जाये, इस विषय मं काफी गर्मागर्म बहसें हो रही हैं । उनमें हवाले तो सैद्धान्तिकता के दिये जा रहे हैं, किन्तु अधिकांश बातों में गंध संकीर्ण स्वार्थों की ही अनुभव की जा रही है । इसी संदर्भ में समस्या के विभिन्न पक्षों को निगाह में रखते हुए उसके लोकहितकारी विवेकपूर्ण समाधानों को लक्ष्य करके एक सामयिक चिन्तन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

क्या है जातिवाद?

प्रकृतिका नियम है, हर कृतियों के साथ कुछ अंशों में विकृतियाँ भी पनपने लगती हैं । किसान खेत में बीज बोता है, तो फसल के साथ खरपतवार भी पनपने लगते हैं । मनुष्य अपने शरीर के पोषण के लिए भोजन करता है । भोजन से शरीर के रस रक्त आदि तो बनते ही हैं, परन्तु उसी प्रक्रिया में मल-मूत्र पसीना भी उपजता है । कृतियों को विकृतियों से अलग रखकर जीवन को गतिशील रखना ही संस्कृति का मूल सूत्र है । हर क्षेत्र की संस्कृतियाँ इसी आधार पर विकसित हुई हैं ।

भारतीय संस्कृति के अंतर्गत मनुष्य की दिव्य क्षमताओं का भरपूर लाभ उठाने की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था बनाई गयी । उपनिषदों में वर्णन मिलता था कि परब्रह्म-परमात्मा ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में बनाया । उसमें ईश्वर की ही तरह भावना, विचारशीलता और सृजनशीलता का अनोखा संगम है । प्रारंभ में सभी मनुष्य-ब्रह्मनिष्ठ जीवन जीते थे ।

जब सुरक्षा सुविधा एवं व्यवस्था की दृष्टि से मनुष्य ने समूह मं रहना शुरु किया, तो अनुभव किया गया कि मनुष्य मात्र एक ही कौम होते हुए भी उनमें कुछ विशेष प्रवृत्तियाँ होती है । व्यवस्था विशेषज्ञ (मैनेजमेण्ट एक्सपर्ट) यह जानते हैं कि मनुष्य को उसकी प्रवृत्तियों के अनुरूप कार्य दिया जाय, तो सफलता का स्तर और प्रतिशत सहज ही बढ़ जाता है । इसलिए मनुष्य की विभूतियाँ-प्रवृत्तियों को चार वर्गों में बाँटकर उन्हें चार वर्ण कहा गया । वर्ण का अर्थ होता है-रंग । यहाँ चमड़ी के रंग को नहीं, तबियत (सहज प्रवृत्ति) के रंग को ध्यान में रखा गया ।

ब्राह्मण- का जीवन में ब्रह्म के परमात्मा के अनुशासन को अध्यात्म को जाग्रत् करने चिंतन चरित्र व्यवहार को श्रेष्ठ बनाने का काम दिया गया ।

क्षत्रिय- को शौर्य, सुरक्षा आदि कार्यों का भार दिया गया ।

वैश्य- को उत्पादन एवं वितरण-विनिमय की जिम्मेदारी ही गई ।

शूद्र- को श्रमनिष्ठ सेवा कार्य सौंपे गये ।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि चार वर्णो की व्यवस्था को गुण, कर्म, विभाग के अनुसार सृजित किया गया है । पूर्वकाल में यही क्रम चलता रहा । नियमानुसार काई भी व्यक्ति रुचि के अनुसार उसके अनुरूप वर्ण व्यवस्था में शामिल हो सकता था । सभी वर्ण एक दूसरे के पूरक सहयोगी बनकर कार्य करते थे । यह आदर्श केवल कहने सुनने भर के नहीं थे, तदनुसार आचरण भी होता था । महर्षि व्यास जन्म से धीवर कन्या के पुत्र थे । महर्षि वशिष्ट अप्सरा पुत्र थे । महर्षि विश्वामित्र राजा विश्वरथ से ब्रह्मर्षि बने । ऐतरेय इतरा (विवाहिता से इतर भिन्न पत्नी) के पुत्र थे । ऋषि सत्यकाम जाबल भी इसी प्रकार के आंतरिक अभिरुचि के आधार पर ब्रह्मविद् बने ।

यह क्रम विवाह सम्बन्धों में भी चलता रहा । राजपुत्री सावित्री ने प्रवृत्ति के अनुरूप तपस्वी सत्यवान का वरण किया । राजा की बेटी सुकन्या ने च्यवन ऋषि से विवाह किया । अर्जुन ने ब्राह्मण वेश में द्रौपदी का स्वयंवर जीता । ऋषि जरत्कार से नागराज वासुकी ने अपनी कन्या का विवाह किया था.... । तात्पय्र यह कि प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य तथा जीवन साथी चुनने का क्रम सहज रूप से चलता रहा ।

यों आया बदलाव

वर्ण चयन की स्वतंत्रता के बीच यह अनुभव किया गया कि बालक जिस वातावरण में रहता है, उसकी प्रवृत्तियाँ उसी के अनुरूप सहज ही ढ़ाली जा सकती है । जैसे व्यापारी के पुत्र को व्यापार के, चिकित्सक के पुत्र को चिकित्सा के, शिल्पकार के पुत्र को शिल्प के सूत्र सहज ही प्राप्त होते रहते हैं । वैसे ही माता-पिता के वर्ण के अनुरूप ही पुत्र की प्रवृत्तियां सहज ही विकसित हो सकती है । यह व्यवस्था की सुविधा का सूत्र है, कोई अनिवार्य नियम नहीं ।

किन्तु यहाँ भी कृति के साथ विकृति का नियम लागू हुआ । माता-पिता के ही कार्य में बच्चों को लगने में सामाजिक सुरक्षा अनुभव हुई । यह सुविधा धीरे-धीरे अनिवार्य नियम जैसी बन गई । जो जिस वर्ग में जन्मा उसी मे काम करें... । जन्म के साथ जुड़ी सुविधा ने जाति (जन्म से ही भेद) की विकृति को शह दी फिर उसके साथ अपनी-अपनी विशेषता के अहंकार जुडे, तो ऊँच-नीच और छुआछूत जैसी अनगढ़ परम्पराएँ चल पड़ी । माता-पिता अपनी इच्छा और प्रतिष्ठा को प्रधानता देकर बच्चों को उसी ओर प्रेरित करने लगे । प्रवृत्ति के अनुसार भूमिका चयन की विवेक सम्मत रीति-नीति की उपेक्षा होने लगी । वर्ण व्यवस्था लुप्त हो गई । जाति परंपरा समाज पर हाबी हो गई । राजनैतिक परतंत्रता की लम्बी अवधि में जातीयता का विकार-विष और पनपा । स्वार्थी शासकों ने तोड़ों और राज करो (डिवाइड एण्ड रुल) की विकृत नीति का सहारा लिया और उसमें वे सफल भी हुए ।

इस विष का शमन किया जाय

भारतीय संस्कृति, भारत की आत्मा यह चाहती है कि विकृति के इस विष को जितनी जल्दी को सके, निरस्त समाप्त किया जाय । रुचि के अनुरूप कार्य चयन की विवेक युक्त रीति-नीति फिर से चल पड़े ।

प्रकृति ने सामाजिक चेतना ने अपने ढंग से यह कार्य शुरु करा दिया है । ब्राह्मण कर्म, आध्यात्मिक विकास, शिक्षण लोकशिक्षण आदि में सभी जाति वर्गों के लोग स्वभावतः लगे हैं । रक्षा कार्य, पुलिस सेना में भी सभी अपनी-अपनी रुचि से जा सकते हैं । व्यवसाय व्यापार के लिए जन्म से वैश्य होना जरूरी नहीं । अब स्वच्छता (सैनी टेशन) में लगे व्यक्तियों को भंगी अछूत कहाँ कहा जाता है? चमडे़ का उद्योग करने वालों को चमार, लोहे के गलाई-ढलाई करने वालों को अब लुहार कौन कहता है? इस आधार पर छुआछूत का भाव कहाँ रह गया है? कहने का अर्थ यही है कि समय का प्रवाह, सामाजिक चेतना, जातिवाद की विकृति का उपचार कर रही है । सभी विचारशीलों को प्रकृति के सामाजिक चेतना के इस पुण्य प्रयास में भावभरा सक्रिय योगदान देना चाहिए ।

स्वतंत्रता के बाद

भारत स्वतंत्र होने के बाद आशा की जा रही थी कि इस जातीय विकृति को शीघ्रही निरस्त किया जा जाय । उस समय के सभी मूर्धन्य नेता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पटेल जी, जयप्रकाश नारायण जी, लोहिया जी, आचार्य कृपलानी डॉ. अम्बेडकर आचार्य विनोबा भावे आदि सभी जातीवाद को समाप्त करना चाहते थे । उस दिशा में प्रयास भी हुए सन् ६० तक लगता या कि अब जाति प्रथा समाप्त होने के कथार पर है ।

लेकिन अचानक राजनीतिक लाभ लेने के लिए जातिगत समीरणों का व्यक्तिगत और दलगत स्वार्थों को लिए हिसाब लगाया जाने लगे ।

पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाना, उन्हें समाज की सहज जीवन धारा में लाने के प्रयास स्तुत्य और आवश्यक है । यदि प्रयासों को संकीर्ण स्वार्थों से मुक्त रखा जा सकता तो बात सहज ही बनती जाती । राजनैतिक और सामाजिक संगठन उन्हें अक्सर और स्नेहवश सहयोग देकर सुयोग्य बना कर क्रमशः जीवनधारा में ला सकते थे । लेकिन दुर्भाग्यवश वैसा हो नहीं सका । जातिगत वर्ग विद्वेष बढ़ा राष्ट्रहित के प्रयासों को वर्ग संघर्ष पर कुर्बान दिखावा किया जाने लगा । स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँच गयी वह सबके सामने है ।

सही दिशा में सफल प्रयोग

अविवेक स्वार्थ केन्द्रित विकृति भड़काने वाले प्रयासों के बीच भी सामाजिक समरसता के कई सफल प्रयोग हुए । RSS इसमें अगणी भूमिका में है इसकी प्रसंशा तो स्वयं महात्मा गाँधी वर्धा के संघ शिविर में आदरणीय हेडगेवार जी से कर चुके थे । स्वतंत्रता सेनानी, युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने युग निर्माण अपने सांस्कृतिक, सामाजिक संगठन 'युग निर्माण परिवार' के माध्यम से कुछ अनोखे कीर्तिमान स्थापित कर दिखायें ।

इस संगठन के केन्द्रों तथा आयोजनों में यज्ञ, जप, पूजन, भोजन आदि किसी भी कार्य में कोई जातिगत भेद नहीं रह गया । सभी अपनी-अपनी प्रकृति एवं अभिरुचि के अनुरूप कार्यों का चयन कर लेते हैं । उन्हें उसके अनुरूप योग्यता विकसित करने में पूरी सहायता की जाती है । परिणाम यह है कि भारत की सभी काधित जाति वर्गों में ब्राह्मण की तरह पौरोहित्य करने वाले व्यक्ति विकसित हो गये हैं । एक ही यज्ञ कुण्ड पर बैठकर आहुति डालते, एक ही साथ भोजन करते, समय किसी को किसी की जाति की अच्छा ही नही होती ।

यह सब कैसे संभव हुआ? क्या किसी के लिए यज्ञ कुण्ड या कार्य विशेष आरक्षित किए गये? नहीं जो भी भावनापूर्वक आया उसे उस कार्य के अनुरूप विकसित होने के लिए हर संभव सहयोग दिया गया । जब व्यक्ति कार्य के अनुरूप एवं विकसित हो गया तो किसी को उसकी भागीदारी पर ऐतराज नही हुआ । अविकसितों में अवर्ण-स्वर्ण, नर-नारी, अमीर-गरीब, सभी थे । सभी स्नेहपूर्ण वातावरण में विकसित हुए तथा एक दूसरे के सहयोगी बन गये । ऐसे ही प्रयोग राजनैतिक स्तर पर भी किए जाये तो बात बन जाये ।

वर्तमान संदर्भ

केन्द्रीय सरकार के निर्णय के अनुसार सन् २०११ की जनगणना सामान्य जन गणना के ढंग से नहीं की जानी है । उनके विकसित देशों वहाँ के प्रत्येक नागरित को उनके स्थाई नागरिक पहचान पत्र दिए जाते है । सरकारी रिकार्ड में उनके सम्बन्धित तमाम जानकारियाँ अंकित रहती हे । उन जानकारियों के आधार पर जनहित की योजनाएँ बनाने, लागू करने तथा व्यक्ति विशेष को उसकी योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार जिम्मेदारी अथवा सहायता देने में सुविधा होती है । विदेशों से चोरी छिपे घुस पैठ करने वालो पर भी सहज ही अंकुश लगाया जा सकता है । एक बार यह व्यवस्था लागू हो जाये तो फिर उपक्रम को चलाते रहना कठिनाई नहीं होता ।

उक्त उद्देश्य से जनगणना के साथ व्यक्ति की योग्यता, शिक्षा, सम्पत्ति, सुनिश्चित पहँचान के रूप में उगलियों की छाप आदि तमाम तथ्यों का अंकन कराना होगा । इन जानकारियों के साथ व्यक्ति की जाति भी नोट करने का प्रस्ताव है ।

इस संदर्भ में खुली चर्चाए हो रही है यह प्रजातान्मिक व्यवस्था के लिए अच्छी बात है । यदि पहँचान सुनिश्चित करनी है तो उँगलियों के निशान लेने ही होंगे । यउि जातियों के नाम पर आरक्षण देते रहना है तो जाति का अंकन जरूरी है । एक बार सुनिश्चित अंकन हो जाने पर सुविधाओं के लालच में झूठे जातिगत प्रमाण पत्रों का काम तो रुक जायेगा । यदि राजनैतिक पार्टियों में जातीयता की अपेक्षा राष्ट्रीयता महत्त्व देने का नैतिक साहस जागे तो फिर उसकी जरूरत नही है । नागरिकों के भौतिक अधिकारियों उस स्थिति में व्यक्ति की जाति अंकित है या नहीं इसका महत्त्व नहीं रह जाता ।

महत्त्व इस बात है कि सामाजिक स्तर पर लोगों के मन मस्तिष्क में जातीयता का विष किस रूप में जमा बैठा है? राजनेताओं और राज नैतिक पार्टियों की सोच में जातिवाद की आग पर स्वार्थ की रोटियाँ सेकने का भूत उतरा या नहीं ।

पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि राष्ट्र की मूल चेतना इस भेद के विष को निरस्त करने में लगी उसे देर सबेर समाप्त होना ही है । जो व्यक्ति एवं संगठन इस युग प्रवाह के साथ सहयोग करेंगे वे वास्तव में लाभ में रहेंगे । जो स्थाई हितों की जगह तात्कालिक स्वार्थों को महत्त्व देंगे वे अन्ततः घाटे मे ही रहने वाले हैं । इस तथ्य को ध्यान में रखकर, राष्ट्रहित को प्राथमिकता देते हुए विचार एवं व्यवहार करना सभी के लिए हितकर सिद्ध होगा ।

Thursday, July 7, 2011

शबरी कुम्भ व् नर्मदा कुम्भ- आस्था या ध्रुवीकरण

‘यदि मुझे कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ तो सबसे पहले धर्मातरण को प्रतिबंधित करूंगा।’ महात्मा गांधी ने यह बात भले ही 1935 में कही हो, लेकिन मंडला में हुए नर्मदा कुंभ ने इसे फिर ताजा कर दिया है।


धर्म को जीवन में धारण करने का अर्थ- त्रिपुण्ड धारण करना अथवा रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर-मन्दिर मत्था टेकते रहना य़ा हर शुक्रवार को मस्जिद जाकर नमाज पढ़ लेना अथवा सन्डे-सन्डे गिरिजा में जाना और - अपने अपने घर वापस आने के बाद फिर वैसा ही पशुओं जैसा जीवन जीना नहीं है. इंग्लैण्ड में अभी केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, बाकी बचे ८४% धर्म क्या है इसको जानने में लगे है पर भारत यूरोप तो नहीं जहाँ धर्म सत्ता या संविधान से अलग हो, यहाँ कागज़ पर भले ही हो पर धर्म के आधार पर जन्मे इस राष्ट्र में धार्मिक ताकतों ने कई बार सत्ता पर अपनी पकड़ बनायीं है | जिस तरह से पोलिटिकल इस्लाम से यूरोप और अमेरिका तंग है, इवेनगलिस्ट चर्च से उत्तर अफ्रीका व् मध्य एशिया त्रस्त है, उसी तरह भारत भी अपने धार्मिक अभिव्यक्तियों या यू कहे धर्मावलम्बियों की क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वन्द में उलझ रहा है.


उडीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पूर्वोतर के जनजातीय क्षेत्रो व् केरल,तमिल नाडू और कर्नाटका के मछुआरो में इसाई मिशनरियों के द्वारा धर्मांतरण कोई नई बात नहीं है और ना ही संघ द्वारा उस क्रिया की प्रतिक्रिया, इस द्वन्द से क्षुब्द होकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “हम उम्मीद करते हैं कि महात्मा गांधी का जो स्वप्न था कि धर्म राष्ट्र के विकास में एक सकारात्मक भूमिका निभाएगा वो पूरा होगा. किसी की आस्था को ज़बरदस्ती बदलना या फिर ये दलील देना कि एक धर्म दूसरे से बेहतर है उचित नहीं है. इसके बदले अदालत ने अब कहा है कि “इस बात में कोई विवाद नहीं कि किसी और की धार्मिक आस्था को किसी तरह से भी प्रभावित करना न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता. ”सर्वोच्च न्यायालय ने दारा सिंह और उनके साथी महेंद्र हेंब्रम को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाते हुए एक तरह से उनके काम को ऐसा कह कर न्यायोचित ठहराने की कोशिश की थी कि चूंकि उस इलाके में धर्म परिवर्तन चल रहा था, उसी परिप्रेक्ष्य में ग्राहम स्टेन्स की हत्या हुई थी.


पशु और मनुष्य में धर्म ही है जो अंतर करती है , परन्तु धर्म का मतलब आज अपनी अपनी संख्या बढ़ाना रह गया है यही कारण है की कुम्भ जैसे धार्मिक आत्मिक शांति प्रदान करने वाले आयोजन अब सामाजिक व् धर्मावलम्बियों को किसी और पूजा पद्धति की तरह जाने से रोकने के लिए किये जाने लगे है | ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती इन सामाजिक कुम्भो को धर्मांतरण, नक्सलवाद तथा हिंसा के खतरों के प्रति जनजागरण व् जनजातीय लोगो से मेलमिलाप तथा उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण प्रयोग मानते है | उनका मानना है जिस प्रकार धार्मिक कुम्भ दक्षिण से उत्तर की तरह आता है उस्सी तरह सामाजिक कुम्भ पश्चिम से पूर्व तक चलेगा इसी कड़ी में जुड़ते हुए मंडला का कुम्भ आयोजित किया जा रहा है | पश्चिमी राज्य गुजरात के डांग में होने वाले शबरी कुम्भ के बाद के नर्मदा कुम्भ फिर अन्य प्रस्तावित उड़ीसा कुम्भ और अंत में अरुणाचल में एक कुम्भ इस श्रंखला को पूरा करता है |


मप्र ईसाई महासंघ के संयोजक फादर आनंद मुटुंगल व प्रदेश संगठक मंत्री जैरी पाल ने पत्रकार वार्ता में यह आरोप लगाया है की मंडला के कुंभ मेले में ईसाई समाज के खिलाफ पर्चे बांटे जा रहे हैं। ईसाई समाज के बारे में दुष्प्रचार वाले होर्डिग्स लगाए गए हैं। कई ईसाइयों से कथित रूप से हिंदू धर्म अपनाने के आवेदन भरवाए गए हैं। श्री मुटुंगल का कहना है कि मेले में धर्मातरण होने की शिकायतों की सत्यता पता करने धर्म स्वतंत्रता अधिनियम के तहत शासन को जांच करानी चाहिए।


इसाई धर्म प्रचारक जॉन दयाल जो कांग्रेस की कृपा से राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य है अपनी टीम के साथ मंडला का दौरा करने के बाद लिखते है की घृणा कैम्प (कुम्भ में लगे शामियानो को) बनाया जा रहा है उनके द्वारा कभी भी हिन्दू जनजागरण के कार्यक्रमों को अच्छा नहीं कहा जायेगा यह तो तय है पर उनकी कुछ बातें हास्यापद है जैसे बाहरी लोगो के आने से व्यवहारिक दिक्कते होंगी, महामारी फैल सकती है, बलात धर्मांतरण होगा आदि आदि ज्यादातर समय वो शबरी कुम्भ, असीमानंद तथा नर्मदा कुम्भ व्यय पर व्यंग करते दिखे क्योंकि जो वो देखने गए थे, शायद वो उन्हें मिला नहीं |