ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Tuesday, February 24, 2009

क्या बनाने आये थे क्या बना बैठे?

क्या बनाने आये थे क्या बना बैठे, कहीं मंदिर बना बैठे कहीं मस्जिद बना बैठे !
हमसे तो जात अच्छी है परिंदों की, कभी मंदिर पर जा बैठे तो कभी मस्जिद पर जा बैठे !



मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाला पंथ आज उन्हें तोड़ रहा है कारन एक ही है की हम अपने धर्मग्रंथों और पैगम्बरों या अवतारों द्वारा कही गयी बातों सही तरह समझ नहीं पा रहे है, हम मानव समज के श्रेष्ठ मूल्यों को छोड़ मुल्लाह मौलवी पंडित ओझा बाबाओं के बातें नए नियमो पर चल रहे है?

कुछ मूल्यों को समान रूप हर समाज ने अच्छे व् बुरा माना है मैनेजमेंट गुरु शिव खेरा उन गुंणों को 'युनिवर्सल कहकर पढातें है वव कुछ इस प्रकार है सत्य, न्याय, वचन-पालन, सदाचार, इमानदारी अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म, वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नहीं मिला। धैर्य, सहनशीलता, स्थैर्य, गंभीरता, दृढ़संकल्पता व बहादुरी वे गुण हैं जो सदा से प्रशंसनीय रहे हैं। इसके विपरीत धैर्यहीनता, क्षुद्रता, विचार की अस्थिरता, निरुत्साह और कायरता पर कभी भी श्रद्धा-सुमन नहीं बरसाए गए। आत्मसंयम, स्वाभिमान, शिष्टता और मिलनसारी की गणना सदैव उत्तम गुणों में ही होती रही और कभी ऐसा नहीं हुआ कि भोग-विलास, ओछापन और अशिष्टता ने नैतिक गुणों की सूची में कोई जगह पाई हो। कर्तव्यपरायणता, विश्वसनीयता, तत्परता एवं उत्तरदायित्व की भावना का सदा सम्मान किया गया तथा कर्तव्य विमुख, धोखाबाज़, कामचोर तथा ग़ैर ज़िम्मेदार लोगों को कभी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया। इसी प्रकार सामूहिक जीवन के सदगुणों व दुर्गुणों के मामले में भी मानवता का फ़ैसला एक जैसा रहा है। प्रशंसा की दृष्टि से वही समाज देखा गया है जिसमें अनुशासन और व्यवस्था हो, आपसी सहयोग तथा सहकारिता हो, आपसी प्रेमभाव तथा हितचिन्तन हो, सामूहिक न्याय व सामाजिक समानता हो। आपसी फूट, बिखराव, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, मतभेद, परस्पर द्वेषभाव, अत्याचार और असमानता की गणना सामूहिक जीवन के प्रशंसनीय लक्ष्णों में कभी भी नहीं की गई। ऐसा ही मामला चरित्रा की अच्छाई और बुराई का भी है। चोरी, व्यभिचार, हत्या, डकैती, धोखाधड़ी और घूसख़ोरी कभी सत्कर्म नहीं माने गए। अभद्र भाषण, उत्पीड़न, पीठ पीछे बुराई, चुग़लख़ोरी, ईर्ष्या, दोषारोपण तथा उपद्रव फैलाने को कभी ‘पुण्य’ नहीं समझा गया। मक्कार, घमंडी, आडम्बरवादी, कपटाचारी, हठधर्म और लोभी व्यक्ति कभी भले लोगों में नहीं गिने गए। इसके विपरीत माँ-बाप की सेवा, संबंधियों की सहायता, पड़ोसियों से अच्छा व्यवहार, मित्रों से हमदर्दी, निर्बलों की हिमायत, अनाथों और बेसहारों की देखरेख, रोगियों की सेवा तथा पीड़ितों की मदद सदैव नेकी समझी गई है। स्वच्छ चरित्र वाला मधुर-भाषी, विनम्र-भाव व्यक्ति और सब की भलाई चाहने वाले लोग सदा आदरणीय रहे। मानवता उन्हीं लोगों को अपना उत्तम अंश मानती रही है जो सच्चे और शुभ-चिन्तक हों, जिन पर हर मामले में भरोसा किया जा सके, जिनका बाहर और भीतर एक समान हो, जिनकी कथनी करनी में समानता हो, जो अपने हितों की प्राप्ति में संतोष करने वाले और दूसरों के अधिकारों और हितों को देने में उदार हृदय हों, शान्तिपूर्वक रहें और दूसरों को शान्ति प्रदान करें, जिनके व्यक्तित्व से प्रत्येक को ‘भलाई’ की आशा हो और किसी को बुराई की आशंका न हो।
जब हम इन सभी बातों को जानते है तब क्यूँ हम खामोश रह कर इंसान को इंसान से बाँटने वाले धर्म-जाति के ठेकेदारों को मुहतोड़ जवाब नहीं देते अलग-अलग धर्म इंसानियत के माले में रंग-बिरंगे फूल की तरह हैं | मालिक नें इंसान बनाया है हमें और हम इतने स्वार्थी हो गए कि हमने धर्म, जात, पंथ और सम्प्रदाय बना डाला | सच कहूँ तो इतनी श्रद्धा मुझे मंदिर में जा कर नहीं आती जितनी निस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगो को देख कर आती है. शिक्षा-अशिक्षा की सीमाओं से परे इनके विचारों की महानता के आगे बरबस नतमस्तक हो जाने को जी करता है. इनकी कला और ज्ञान के आगे धर्म, जाति और देश की सीमाओं के मसले इतने छोटे हो जाते हैं कि क्या कहना. अहसास होता है कि हम हिंदु – मुस्लिम से पहले एक इंसान हैं.

एक ओर हमारे राजनेता हैं जो लोगों को धर्म और प्रांत के आधार पर बाँट कर झगड़े करवा रहे हैं और एक ओर ऐसे महान लोग जिनके लिये ईश्वर एक है, ईश्वर लोगो में बस्ता है वे लोकसेवा करें जा रहे है निस्वार्थ, ज्ञान का सम्मान होता है होता है पंथ का नहीं. सच्ची श्रद्धा और भक्ति क्या है ये जानने के बाद भी धर्मं और जाति की सीमाओं से बिल्कुल परे पाती हूँ. अच्छा हो कि हमारी पीढ़ी नेताओं के अतिवादी विचारों का अंधाधुंध अनुसरण करने के बजाय अपना आदर्श ऐसे लोगों को चुनें जो सचमुच अनुसरणीय हैं.