मार्कस्वादी कम्युनिस्ट पार्टी अब अपने दायरे को आगे बढाते हुए इस बार अपने परंपरागत तीन राज्योँ बंगाल केरल व् त्रिपुरा से आगे बढ़ कर हिमाचल में एक सशक्त भूमिका की तैयारी कर रही है. हिमाचल प्रदेश में पिछले कई दशको से भाजपा और कांग्रेस के बीच बारी-बारी से सत्ता का परिवर्तन हुआ मगर सत्ता के इस खेल में तीसरा मोर्चा यहाँ नदारद ही रहा। उत्तर भारत में कमोबेश यही हालत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व् मध्यप्रदेश की भी है, पर पिछले कई वर्षों से मार्कसवादी कम्युनिस्ट पार्टी बहुत ही धीरे धीरे कम से कम दो राज्योँ राजस्थान व् हिमाचल में यह रिक्त स्थान भरने में प्रयासरत है।इन्ही प्रयासों के तहत राजस्थान में पार्टी के एक मात्र विधायक अमरा राम दो बार अलग अलग विधान सभा क्षेत्रो में कांग्रेस के प्रदेश प्रमुखो को हरा चुके है, किसानो के मुद्दे पर वसुंधरा सरकार को झुकवा चुके है तथा बिजली दरो के लिए सफल आन्दोलन कर चुके है।राजस्थान जैसे बड़े राज्य में माकपा का यह आन्दोलन अपने भरसक प्रयासो के बाद भी उसके वृहद मानचित्र पर वो करिश्मा नहीं दिखा पाया जो अपेक्षाकृत हिमाचल जैसे छोटे राज्य में वो दिखाने को तैयार है.
पिछले कुछ समय से हिमाचल प्रदेश में तीसरे मोर्चे की जरूरत को महसूस किया जा रहा था जो की पिछले चुनावो में कांग्रेस छोड़कर बसपा पहुंचे प्रदेश के बड़े नेता वीरेंदर कुमार मनकोटिया के नेतृत्व पिछले चुनाव में दिखा भी पर शीघ्र ही उनके पार्टी से मोहभंग हो गया।बसपा के बाद तीसरे विकल्प की इस कमी को माकपा भरने की कवायद में है।माकपा का संगत रातो रात खड़ा नहीं हुआ है करीब तीन दशको से वे हिमाचल की राजनीति में है। इन सालों में बड़ी ही मंथर गति से साम्यवादी छात्र आन्दोलन को स्थापित करने वाली माकपा से जुड़ी स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एस ऍफ़ आई ) पिछले कुछ सालो से तेजी से स्वीकृत किये जानी वाली छात्र संगठन बन कर उभरी है। शिमला हमीरपुर ऊना में छात्र चुनावों में वे लगातार जीत रही है साथ ही सीपीएम् से सम्बद्ध कामगार यूनियन सीटू ने भी काफी तेजी से यहाँ के होटल व्ययसाय व् पर्यटन वर्करो में अपनी पैठ बनाई है।बसपा की तरह सारे राज्य भर में अपने प्रत्याशी खड़े करने की अपेक्षा माकपा ने समझबूझ कर पंद्रह जगह अपने प्रत्याशी उतारें है जिनमे प्रचार के लिए बृंदा कारत सरीखे माकपा के राष्ट्रीय नेता इसी प्रयास में लगे है।
हिमाचल में पार्टी की कमान राकेश सिंघा के हाथ में है जो वर्षो तक साम्यवादी छात्र आंदोलन से जुड़े रहे है तथा हिमाचल के एक प्रमुख राजनीतिक परिवार से आते है। उनके नाना सत्यानन्द स्टोक्स एक अमरीकी नागरिक थे जिन्होने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया था। वे अविभाजित पंजाब से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने और उनके परिवार को ही हिमाचल में पहली बार सेब की खेती को शुरु करवाने का श्रेय जाता है। उनके नाना के आलावा उनके मामा लाल चंद स्टोक्स, शिमला से सटे ठीयोग से विधायक रहे है और उनकी मृत्यु के बाद उनकी मामी व् कांग्रेस की बड़ी नेता विद्या स्टोक्स यहाँ से चार बार जीत चुकी है. महज 73 हज़ार वोटरो वाली इस सीट पर राकेश सिंघा इस बार इसी सीट से अपनी मामी को कड़ी टक्कर देते नज़र आ रहे है। भाजपा के पूर्व विधायक राकेश वर्मा व् कुसुम्पटी सीट से विद्या को कड़ी टक्कर देने वाले तृणमूल के प्रत्याशी प्रमोद शर्मा इस मुकाबले को चतुर्कोंणीय बना रहे है. पूर्व में राकेश सिंघा शिमला सीट को एक बार जीत कर सबको हैरान भी कर चुके है, जो बाद में उन्हें एक अदालती मामले की वजह से त्यागनी पडी थी।
मेयर, डिप्टी मेयर व तीन कारपोरेटर प्रमुख पद जीत शिमला म्युनिसिपल निगम में सफलता हासिल करने के साथ साथ पिछले कई विधानसभा चुनावो में शिमला सीट पर माकपा ने कड़ी चुनौती दी है। ज्ञात हो शिमला कोई ग्रामीण अंचल नहीं यहाँ अच्छी आय व 89 % साक्षरता दर वाली आबादी रहती है सो माकपा का सारा जोर उच्च साक्षरता वाले शिमला जिले की चार सीटो पर अधिक है जो कांग्रेस की वीरभद्र सिंह का किला भी है।इसी जिले की सबसे ज्यादा मार्क्सवाद प्रभावित रहने वाली तीन सीटो में से एक सीट शिमला शहर में माकपा के युवा नेता टिकेन्द्र सिंफ पंवार खड़े है जो की शहर के डिप्टी मेयर भी है। उन्होने पिछले म्युनिसिपल चुनावो में 21,196 मत पाकर भाजपा के देवेन्द्र चौधरी को 4778 मतो से हराया था।इस सीट पर माकपा का इतिहास पुराना है सन 1993 में सिंघा इसे जीते थे तो सन 2003 में संजय चौहान यहाँ दुसरे नम्बर पर रहे थे। शिमला जिले की एक अन्य सीट कुसुम्पटी में पूर्व आईएफएस कुलदीप तंवर को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया है। दो दशक से सेवा त्याग कर समाज कल्याण में जुटे तंवर की सामाजिक संस्था ज्ञान विज्ञान समिति किसानो के मुद्दे से जुडी रही है और खेती बचाओ जैसा सफल आन्दोलन भी कर चुकी है। मजेदार बात ये है की यहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह जहा कांग्रेस उम्मीदवार अनिरुद्ध सिंह के लिए वोट मांग रहे है वही उनके ससुराल वाले उनके साले की पत्नी ज्योति विक्रम सिंह कड़ी चुनौती दे रही है. 59,121 वोटरो वाली कुसुम्पटी सीट करीब दशको बाद अनारक्षित सीट हुई है सो कोई भी मौका गवाना नहीं चाहता सीपीएम् इसी टकराहट में इस बार यहाँ से जीत की उम्मीद कर रही है।
इसके अलावा बल्ह सुरक्षित सीट पर माकपा की एतिहासिक संघर्ष की कहानी है सन 1972 में सीपीएम् के तुलसी राम एक बार विधायक बन चुके है शायद यही कारण है की अपने सहयोगी हिमाचल लोकहित पार्टी के द्वारा सीट छोड़ने की गुजारिश के बावजूद भी सीपीएम् ने यहाँ से परस राम को उतारा है जो की कांग्रेस के प्रकाश चौधरी व् भाजपा से इंद्र सिंह गांधी को चुनौती देते नज़र आयेंगे . हमीरपुर जिले में छात्र संगठन से विधानसभा चुनावों में टिकट पाए अनिल मनकोटिया को मुख्यमंत्री धूमल के खिलाफ उम्मीदवार बनाया गया है।
सीपीएम् के लाल सूर्य के उदय से हिमाचल की राजनीति में स्थापित दोनों राष्ट्रीय दल बादल की तरह छंट जायेंगे ऐसा अगर ना भी हो तो किसानो मजदूरों की आवाज़ को नया राजनितिक विकल्प जरूर मिलेगा। समाज के इन घटकों को उचित राजनीतिक स्पेस ना मिलने से भी दुश्वारिया बढ़ती फिर माओवाद भी महज 100 कि० मी० की दूरी पर है। हिमाचल मतदाता संख्या 50 हज़ार से एक लाख वोटर प्रति विधान सभा है, इतनी कम मतदाता संख्या होने की कारण पिछली बार करीब पच्चीस फीसद सीटो पर 2500 हज़ार मतों से निर्णय हुआ है।इस चुनावी हकीकत के मद्देनज़र पिछले दशको में जिस तरह पूंजीवाद से प्रभावित होकर पहाड़ बेचें गए है उसकी प्रतिक्रियास्वरूप साम्यवाद का उदय होना अवश्यम्भावी है।
पिछले वर्ष अपने हिमाचल प्रवास के दौरान हमारे हिमाचली ड्राइवर, शिमला से कुल्लू जाते हुए एक जगह रूककर हमें एक बड़ी सीमेंट फैक्ट्री दिखाने लगे फिर कुछ कटे पहाड़ और पहाडी जीवन पर उसके दुष्परिणाम को बताया, बाद में इसी फैक्ट्री पर सुप्रीम कोर्ट जुर्माना लगा दिया था।ऐसे व्यापक असंतोष के साथ साथ छोटे छोटे मुद्दे जैसे की सरकार द्वारा कार्टन फैक्टरी गुम्मा को सस्ते दाम पर बेचने के बाद बागवानों को अधिक दाम चुका कर कार्टन खरीदने जाना भी इन बेहद कम अंतर वाले चुनावों में भारी पद सकता है। पालिसी के मामलो में देखा जाए तो सरकार ने बिजली व ऊर्जा कारपोरेशन को एक भी परियोजना बनाने को नहीं दी तथा सभी परियोजनाएं निजी कंपनियों को सौंप दी है जिससे राज्य के लोगो को नौकरियों व् संसाधनों में उचित भागीदारी नहीं मिल पायेगी। हिमाचल के जिलो की आबादी बहुत ज्यादा नहीं होती फिर भी कई विश्वविद्यालय एक छोटे जिले सोलन में बन गए है सोलन चंडीगढ़ के धनाढ्य वर्ग से 2 घंटे की दुरी पर है. दोनों बडे दल इन तथ्यों को नज़र अंदाज कर रहें है पर आखिर कुछ तो वजह होगी की वीरभद्र जी के गृह जिले शिमला व् धूमल जी के गृह जिला हमीरपुर के कैम्पस और ज़मीनी राजनीति लाल हो गयी है.
सीपीएम् की इन चुनावो में कुछ मजबूरियां भी रही है मसलन सामंतवाद के काफी नजदीक रहने वाले कुल्लू के पूर्व राजा महेश्वर सिंह की हिमाचल लोकहित पार्टी से चुनावी तालमेल विचारधारा के मोर्चे पर पार्टी को फांसता नजर आता है, साथ ही सेब बागान के बुर्जुआ लोगो का पार्टी के साथ जुड़ना भी चिंता का विषय है, फिर भी कम्युनिस्ट अपने सबसे अहम चुनावो को इस बार लड़ रहे है.उनके नेता सिंघा हिमाचल के भद्रलोक में शामिल सेब उत्पादकों की नब्ज जानते है उनका परिवार इसी कारोबार से जुड़ा है, शिमला का बौद्धिक वर्ग उनके साथ जुड़ ही गया है, हिमाचल विश्विद्यालय से नए छात्र नेतृत्व भी मिल रहे है।यह सीपीएम का यह सबसे अच्छा काल है यानी अभी नहीं तो शायद कभी नहीं.
पिछले कुछ समय से हिमाचल प्रदेश में तीसरे मोर्चे की जरूरत को महसूस किया जा रहा था जो की पिछले चुनावो में कांग्रेस छोड़कर बसपा पहुंचे प्रदेश के बड़े नेता वीरेंदर कुमार मनकोटिया के नेतृत्व पिछले चुनाव में दिखा भी पर शीघ्र ही उनके पार्टी से मोहभंग हो गया।बसपा के बाद तीसरे विकल्प की इस कमी को माकपा भरने की कवायद में है।माकपा का संगत रातो रात खड़ा नहीं हुआ है करीब तीन दशको से वे हिमाचल की राजनीति में है। इन सालों में बड़ी ही मंथर गति से साम्यवादी छात्र आन्दोलन को स्थापित करने वाली माकपा से जुड़ी स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एस ऍफ़ आई ) पिछले कुछ सालो से तेजी से स्वीकृत किये जानी वाली छात्र संगठन बन कर उभरी है। शिमला हमीरपुर ऊना में छात्र चुनावों में वे लगातार जीत रही है साथ ही सीपीएम् से सम्बद्ध कामगार यूनियन सीटू ने भी काफी तेजी से यहाँ के होटल व्ययसाय व् पर्यटन वर्करो में अपनी पैठ बनाई है।बसपा की तरह सारे राज्य भर में अपने प्रत्याशी खड़े करने की अपेक्षा माकपा ने समझबूझ कर पंद्रह जगह अपने प्रत्याशी उतारें है जिनमे प्रचार के लिए बृंदा कारत सरीखे माकपा के राष्ट्रीय नेता इसी प्रयास में लगे है।
हिमाचल में पार्टी की कमान राकेश सिंघा के हाथ में है जो वर्षो तक साम्यवादी छात्र आंदोलन से जुड़े रहे है तथा हिमाचल के एक प्रमुख राजनीतिक परिवार से आते है। उनके नाना सत्यानन्द स्टोक्स एक अमरीकी नागरिक थे जिन्होने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया था। वे अविभाजित पंजाब से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने और उनके परिवार को ही हिमाचल में पहली बार सेब की खेती को शुरु करवाने का श्रेय जाता है। उनके नाना के आलावा उनके मामा लाल चंद स्टोक्स, शिमला से सटे ठीयोग से विधायक रहे है और उनकी मृत्यु के बाद उनकी मामी व् कांग्रेस की बड़ी नेता विद्या स्टोक्स यहाँ से चार बार जीत चुकी है. महज 73 हज़ार वोटरो वाली इस सीट पर राकेश सिंघा इस बार इसी सीट से अपनी मामी को कड़ी टक्कर देते नज़र आ रहे है। भाजपा के पूर्व विधायक राकेश वर्मा व् कुसुम्पटी सीट से विद्या को कड़ी टक्कर देने वाले तृणमूल के प्रत्याशी प्रमोद शर्मा इस मुकाबले को चतुर्कोंणीय बना रहे है. पूर्व में राकेश सिंघा शिमला सीट को एक बार जीत कर सबको हैरान भी कर चुके है, जो बाद में उन्हें एक अदालती मामले की वजह से त्यागनी पडी थी।
मेयर, डिप्टी मेयर व तीन कारपोरेटर प्रमुख पद जीत शिमला म्युनिसिपल निगम में सफलता हासिल करने के साथ साथ पिछले कई विधानसभा चुनावो में शिमला सीट पर माकपा ने कड़ी चुनौती दी है। ज्ञात हो शिमला कोई ग्रामीण अंचल नहीं यहाँ अच्छी आय व 89 % साक्षरता दर वाली आबादी रहती है सो माकपा का सारा जोर उच्च साक्षरता वाले शिमला जिले की चार सीटो पर अधिक है जो कांग्रेस की वीरभद्र सिंह का किला भी है।इसी जिले की सबसे ज्यादा मार्क्सवाद प्रभावित रहने वाली तीन सीटो में से एक सीट शिमला शहर में माकपा के युवा नेता टिकेन्द्र सिंफ पंवार खड़े है जो की शहर के डिप्टी मेयर भी है। उन्होने पिछले म्युनिसिपल चुनावो में 21,196 मत पाकर भाजपा के देवेन्द्र चौधरी को 4778 मतो से हराया था।इस सीट पर माकपा का इतिहास पुराना है सन 1993 में सिंघा इसे जीते थे तो सन 2003 में संजय चौहान यहाँ दुसरे नम्बर पर रहे थे। शिमला जिले की एक अन्य सीट कुसुम्पटी में पूर्व आईएफएस कुलदीप तंवर को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया है। दो दशक से सेवा त्याग कर समाज कल्याण में जुटे तंवर की सामाजिक संस्था ज्ञान विज्ञान समिति किसानो के मुद्दे से जुडी रही है और खेती बचाओ जैसा सफल आन्दोलन भी कर चुकी है। मजेदार बात ये है की यहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह जहा कांग्रेस उम्मीदवार अनिरुद्ध सिंह के लिए वोट मांग रहे है वही उनके ससुराल वाले उनके साले की पत्नी ज्योति विक्रम सिंह कड़ी चुनौती दे रही है. 59,121 वोटरो वाली कुसुम्पटी सीट करीब दशको बाद अनारक्षित सीट हुई है सो कोई भी मौका गवाना नहीं चाहता सीपीएम् इसी टकराहट में इस बार यहाँ से जीत की उम्मीद कर रही है।
इसके अलावा बल्ह सुरक्षित सीट पर माकपा की एतिहासिक संघर्ष की कहानी है सन 1972 में सीपीएम् के तुलसी राम एक बार विधायक बन चुके है शायद यही कारण है की अपने सहयोगी हिमाचल लोकहित पार्टी के द्वारा सीट छोड़ने की गुजारिश के बावजूद भी सीपीएम् ने यहाँ से परस राम को उतारा है जो की कांग्रेस के प्रकाश चौधरी व् भाजपा से इंद्र सिंह गांधी को चुनौती देते नज़र आयेंगे . हमीरपुर जिले में छात्र संगठन से विधानसभा चुनावों में टिकट पाए अनिल मनकोटिया को मुख्यमंत्री धूमल के खिलाफ उम्मीदवार बनाया गया है।
सीपीएम् के लाल सूर्य के उदय से हिमाचल की राजनीति में स्थापित दोनों राष्ट्रीय दल बादल की तरह छंट जायेंगे ऐसा अगर ना भी हो तो किसानो मजदूरों की आवाज़ को नया राजनितिक विकल्प जरूर मिलेगा। समाज के इन घटकों को उचित राजनीतिक स्पेस ना मिलने से भी दुश्वारिया बढ़ती फिर माओवाद भी महज 100 कि० मी० की दूरी पर है। हिमाचल मतदाता संख्या 50 हज़ार से एक लाख वोटर प्रति विधान सभा है, इतनी कम मतदाता संख्या होने की कारण पिछली बार करीब पच्चीस फीसद सीटो पर 2500 हज़ार मतों से निर्णय हुआ है।इस चुनावी हकीकत के मद्देनज़र पिछले दशको में जिस तरह पूंजीवाद से प्रभावित होकर पहाड़ बेचें गए है उसकी प्रतिक्रियास्वरूप साम्यवाद का उदय होना अवश्यम्भावी है।
पिछले वर्ष अपने हिमाचल प्रवास के दौरान हमारे हिमाचली ड्राइवर, शिमला से कुल्लू जाते हुए एक जगह रूककर हमें एक बड़ी सीमेंट फैक्ट्री दिखाने लगे फिर कुछ कटे पहाड़ और पहाडी जीवन पर उसके दुष्परिणाम को बताया, बाद में इसी फैक्ट्री पर सुप्रीम कोर्ट जुर्माना लगा दिया था।ऐसे व्यापक असंतोष के साथ साथ छोटे छोटे मुद्दे जैसे की सरकार द्वारा कार्टन फैक्टरी गुम्मा को सस्ते दाम पर बेचने के बाद बागवानों को अधिक दाम चुका कर कार्टन खरीदने जाना भी इन बेहद कम अंतर वाले चुनावों में भारी पद सकता है। पालिसी के मामलो में देखा जाए तो सरकार ने बिजली व ऊर्जा कारपोरेशन को एक भी परियोजना बनाने को नहीं दी तथा सभी परियोजनाएं निजी कंपनियों को सौंप दी है जिससे राज्य के लोगो को नौकरियों व् संसाधनों में उचित भागीदारी नहीं मिल पायेगी। हिमाचल के जिलो की आबादी बहुत ज्यादा नहीं होती फिर भी कई विश्वविद्यालय एक छोटे जिले सोलन में बन गए है सोलन चंडीगढ़ के धनाढ्य वर्ग से 2 घंटे की दुरी पर है. दोनों बडे दल इन तथ्यों को नज़र अंदाज कर रहें है पर आखिर कुछ तो वजह होगी की वीरभद्र जी के गृह जिले शिमला व् धूमल जी के गृह जिला हमीरपुर के कैम्पस और ज़मीनी राजनीति लाल हो गयी है.
सीपीएम् की इन चुनावो में कुछ मजबूरियां भी रही है मसलन सामंतवाद के काफी नजदीक रहने वाले कुल्लू के पूर्व राजा महेश्वर सिंह की हिमाचल लोकहित पार्टी से चुनावी तालमेल विचारधारा के मोर्चे पर पार्टी को फांसता नजर आता है, साथ ही सेब बागान के बुर्जुआ लोगो का पार्टी के साथ जुड़ना भी चिंता का विषय है, फिर भी कम्युनिस्ट अपने सबसे अहम चुनावो को इस बार लड़ रहे है.उनके नेता सिंघा हिमाचल के भद्रलोक में शामिल सेब उत्पादकों की नब्ज जानते है उनका परिवार इसी कारोबार से जुड़ा है, शिमला का बौद्धिक वर्ग उनके साथ जुड़ ही गया है, हिमाचल विश्विद्यालय से नए छात्र नेतृत्व भी मिल रहे है।यह सीपीएम का यह सबसे अच्छा काल है यानी अभी नहीं तो शायद कभी नहीं.