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Sunday, July 10, 2011

राष्ट्रीय जनगणना सन् २०११

जातिवाद के विष का शमन किया जाय और उसे भड़काया न जाय

जनगणना की स्वाभाविक प्रक्रिया से संकीर्ण स्वार्थों को दूर ही रखा जाय

...भारत के राष्ट्रीय जनगणना सन् २०११ की तैयारी चल रही है । जनगणना के रिकार्ड में हर नागरिक की जाति भी अंकित की जाये या न की जाये, इस विषय मं काफी गर्मागर्म बहसें हो रही हैं । उनमें हवाले तो सैद्धान्तिकता के दिये जा रहे हैं, किन्तु अधिकांश बातों में गंध संकीर्ण स्वार्थों की ही अनुभव की जा रही है । इसी संदर्भ में समस्या के विभिन्न पक्षों को निगाह में रखते हुए उसके लोकहितकारी विवेकपूर्ण समाधानों को लक्ष्य करके एक सामयिक चिन्तन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

क्या है जातिवाद?

प्रकृतिका नियम है, हर कृतियों के साथ कुछ अंशों में विकृतियाँ भी पनपने लगती हैं । किसान खेत में बीज बोता है, तो फसल के साथ खरपतवार भी पनपने लगते हैं । मनुष्य अपने शरीर के पोषण के लिए भोजन करता है । भोजन से शरीर के रस रक्त आदि तो बनते ही हैं, परन्तु उसी प्रक्रिया में मल-मूत्र पसीना भी उपजता है । कृतियों को विकृतियों से अलग रखकर जीवन को गतिशील रखना ही संस्कृति का मूल सूत्र है । हर क्षेत्र की संस्कृतियाँ इसी आधार पर विकसित हुई हैं ।

भारतीय संस्कृति के अंतर्गत मनुष्य की दिव्य क्षमताओं का भरपूर लाभ उठाने की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था बनाई गयी । उपनिषदों में वर्णन मिलता था कि परब्रह्म-परमात्मा ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में बनाया । उसमें ईश्वर की ही तरह भावना, विचारशीलता और सृजनशीलता का अनोखा संगम है । प्रारंभ में सभी मनुष्य-ब्रह्मनिष्ठ जीवन जीते थे ।

जब सुरक्षा सुविधा एवं व्यवस्था की दृष्टि से मनुष्य ने समूह मं रहना शुरु किया, तो अनुभव किया गया कि मनुष्य मात्र एक ही कौम होते हुए भी उनमें कुछ विशेष प्रवृत्तियाँ होती है । व्यवस्था विशेषज्ञ (मैनेजमेण्ट एक्सपर्ट) यह जानते हैं कि मनुष्य को उसकी प्रवृत्तियों के अनुरूप कार्य दिया जाय, तो सफलता का स्तर और प्रतिशत सहज ही बढ़ जाता है । इसलिए मनुष्य की विभूतियाँ-प्रवृत्तियों को चार वर्गों में बाँटकर उन्हें चार वर्ण कहा गया । वर्ण का अर्थ होता है-रंग । यहाँ चमड़ी के रंग को नहीं, तबियत (सहज प्रवृत्ति) के रंग को ध्यान में रखा गया ।

ब्राह्मण- का जीवन में ब्रह्म के परमात्मा के अनुशासन को अध्यात्म को जाग्रत् करने चिंतन चरित्र व्यवहार को श्रेष्ठ बनाने का काम दिया गया ।

क्षत्रिय- को शौर्य, सुरक्षा आदि कार्यों का भार दिया गया ।

वैश्य- को उत्पादन एवं वितरण-विनिमय की जिम्मेदारी ही गई ।

शूद्र- को श्रमनिष्ठ सेवा कार्य सौंपे गये ।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि चार वर्णो की व्यवस्था को गुण, कर्म, विभाग के अनुसार सृजित किया गया है । पूर्वकाल में यही क्रम चलता रहा । नियमानुसार काई भी व्यक्ति रुचि के अनुसार उसके अनुरूप वर्ण व्यवस्था में शामिल हो सकता था । सभी वर्ण एक दूसरे के पूरक सहयोगी बनकर कार्य करते थे । यह आदर्श केवल कहने सुनने भर के नहीं थे, तदनुसार आचरण भी होता था । महर्षि व्यास जन्म से धीवर कन्या के पुत्र थे । महर्षि वशिष्ट अप्सरा पुत्र थे । महर्षि विश्वामित्र राजा विश्वरथ से ब्रह्मर्षि बने । ऐतरेय इतरा (विवाहिता से इतर भिन्न पत्नी) के पुत्र थे । ऋषि सत्यकाम जाबल भी इसी प्रकार के आंतरिक अभिरुचि के आधार पर ब्रह्मविद् बने ।

यह क्रम विवाह सम्बन्धों में भी चलता रहा । राजपुत्री सावित्री ने प्रवृत्ति के अनुरूप तपस्वी सत्यवान का वरण किया । राजा की बेटी सुकन्या ने च्यवन ऋषि से विवाह किया । अर्जुन ने ब्राह्मण वेश में द्रौपदी का स्वयंवर जीता । ऋषि जरत्कार से नागराज वासुकी ने अपनी कन्या का विवाह किया था.... । तात्पय्र यह कि प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य तथा जीवन साथी चुनने का क्रम सहज रूप से चलता रहा ।

यों आया बदलाव

वर्ण चयन की स्वतंत्रता के बीच यह अनुभव किया गया कि बालक जिस वातावरण में रहता है, उसकी प्रवृत्तियाँ उसी के अनुरूप सहज ही ढ़ाली जा सकती है । जैसे व्यापारी के पुत्र को व्यापार के, चिकित्सक के पुत्र को चिकित्सा के, शिल्पकार के पुत्र को शिल्प के सूत्र सहज ही प्राप्त होते रहते हैं । वैसे ही माता-पिता के वर्ण के अनुरूप ही पुत्र की प्रवृत्तियां सहज ही विकसित हो सकती है । यह व्यवस्था की सुविधा का सूत्र है, कोई अनिवार्य नियम नहीं ।

किन्तु यहाँ भी कृति के साथ विकृति का नियम लागू हुआ । माता-पिता के ही कार्य में बच्चों को लगने में सामाजिक सुरक्षा अनुभव हुई । यह सुविधा धीरे-धीरे अनिवार्य नियम जैसी बन गई । जो जिस वर्ग में जन्मा उसी मे काम करें... । जन्म के साथ जुड़ी सुविधा ने जाति (जन्म से ही भेद) की विकृति को शह दी फिर उसके साथ अपनी-अपनी विशेषता के अहंकार जुडे, तो ऊँच-नीच और छुआछूत जैसी अनगढ़ परम्पराएँ चल पड़ी । माता-पिता अपनी इच्छा और प्रतिष्ठा को प्रधानता देकर बच्चों को उसी ओर प्रेरित करने लगे । प्रवृत्ति के अनुसार भूमिका चयन की विवेक सम्मत रीति-नीति की उपेक्षा होने लगी । वर्ण व्यवस्था लुप्त हो गई । जाति परंपरा समाज पर हाबी हो गई । राजनैतिक परतंत्रता की लम्बी अवधि में जातीयता का विकार-विष और पनपा । स्वार्थी शासकों ने तोड़ों और राज करो (डिवाइड एण्ड रुल) की विकृत नीति का सहारा लिया और उसमें वे सफल भी हुए ।

इस विष का शमन किया जाय

भारतीय संस्कृति, भारत की आत्मा यह चाहती है कि विकृति के इस विष को जितनी जल्दी को सके, निरस्त समाप्त किया जाय । रुचि के अनुरूप कार्य चयन की विवेक युक्त रीति-नीति फिर से चल पड़े ।

प्रकृति ने सामाजिक चेतना ने अपने ढंग से यह कार्य शुरु करा दिया है । ब्राह्मण कर्म, आध्यात्मिक विकास, शिक्षण लोकशिक्षण आदि में सभी जाति वर्गों के लोग स्वभावतः लगे हैं । रक्षा कार्य, पुलिस सेना में भी सभी अपनी-अपनी रुचि से जा सकते हैं । व्यवसाय व्यापार के लिए जन्म से वैश्य होना जरूरी नहीं । अब स्वच्छता (सैनी टेशन) में लगे व्यक्तियों को भंगी अछूत कहाँ कहा जाता है? चमडे़ का उद्योग करने वालों को चमार, लोहे के गलाई-ढलाई करने वालों को अब लुहार कौन कहता है? इस आधार पर छुआछूत का भाव कहाँ रह गया है? कहने का अर्थ यही है कि समय का प्रवाह, सामाजिक चेतना, जातिवाद की विकृति का उपचार कर रही है । सभी विचारशीलों को प्रकृति के सामाजिक चेतना के इस पुण्य प्रयास में भावभरा सक्रिय योगदान देना चाहिए ।

स्वतंत्रता के बाद

भारत स्वतंत्र होने के बाद आशा की जा रही थी कि इस जातीय विकृति को शीघ्रही निरस्त किया जा जाय । उस समय के सभी मूर्धन्य नेता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पटेल जी, जयप्रकाश नारायण जी, लोहिया जी, आचार्य कृपलानी डॉ. अम्बेडकर आचार्य विनोबा भावे आदि सभी जातीवाद को समाप्त करना चाहते थे । उस दिशा में प्रयास भी हुए सन् ६० तक लगता या कि अब जाति प्रथा समाप्त होने के कथार पर है ।

लेकिन अचानक राजनीतिक लाभ लेने के लिए जातिगत समीरणों का व्यक्तिगत और दलगत स्वार्थों को लिए हिसाब लगाया जाने लगे ।

पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाना, उन्हें समाज की सहज जीवन धारा में लाने के प्रयास स्तुत्य और आवश्यक है । यदि प्रयासों को संकीर्ण स्वार्थों से मुक्त रखा जा सकता तो बात सहज ही बनती जाती । राजनैतिक और सामाजिक संगठन उन्हें अक्सर और स्नेहवश सहयोग देकर सुयोग्य बना कर क्रमशः जीवनधारा में ला सकते थे । लेकिन दुर्भाग्यवश वैसा हो नहीं सका । जातिगत वर्ग विद्वेष बढ़ा राष्ट्रहित के प्रयासों को वर्ग संघर्ष पर कुर्बान दिखावा किया जाने लगा । स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँच गयी वह सबके सामने है ।

सही दिशा में सफल प्रयोग

अविवेक स्वार्थ केन्द्रित विकृति भड़काने वाले प्रयासों के बीच भी सामाजिक समरसता के कई सफल प्रयोग हुए । RSS इसमें अगणी भूमिका में है इसकी प्रसंशा तो स्वयं महात्मा गाँधी वर्धा के संघ शिविर में आदरणीय हेडगेवार जी से कर चुके थे । स्वतंत्रता सेनानी, युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने युग निर्माण अपने सांस्कृतिक, सामाजिक संगठन 'युग निर्माण परिवार' के माध्यम से कुछ अनोखे कीर्तिमान स्थापित कर दिखायें ।

इस संगठन के केन्द्रों तथा आयोजनों में यज्ञ, जप, पूजन, भोजन आदि किसी भी कार्य में कोई जातिगत भेद नहीं रह गया । सभी अपनी-अपनी प्रकृति एवं अभिरुचि के अनुरूप कार्यों का चयन कर लेते हैं । उन्हें उसके अनुरूप योग्यता विकसित करने में पूरी सहायता की जाती है । परिणाम यह है कि भारत की सभी काधित जाति वर्गों में ब्राह्मण की तरह पौरोहित्य करने वाले व्यक्ति विकसित हो गये हैं । एक ही यज्ञ कुण्ड पर बैठकर आहुति डालते, एक ही साथ भोजन करते, समय किसी को किसी की जाति की अच्छा ही नही होती ।

यह सब कैसे संभव हुआ? क्या किसी के लिए यज्ञ कुण्ड या कार्य विशेष आरक्षित किए गये? नहीं जो भी भावनापूर्वक आया उसे उस कार्य के अनुरूप विकसित होने के लिए हर संभव सहयोग दिया गया । जब व्यक्ति कार्य के अनुरूप एवं विकसित हो गया तो किसी को उसकी भागीदारी पर ऐतराज नही हुआ । अविकसितों में अवर्ण-स्वर्ण, नर-नारी, अमीर-गरीब, सभी थे । सभी स्नेहपूर्ण वातावरण में विकसित हुए तथा एक दूसरे के सहयोगी बन गये । ऐसे ही प्रयोग राजनैतिक स्तर पर भी किए जाये तो बात बन जाये ।

वर्तमान संदर्भ

केन्द्रीय सरकार के निर्णय के अनुसार सन् २०११ की जनगणना सामान्य जन गणना के ढंग से नहीं की जानी है । उनके विकसित देशों वहाँ के प्रत्येक नागरित को उनके स्थाई नागरिक पहचान पत्र दिए जाते है । सरकारी रिकार्ड में उनके सम्बन्धित तमाम जानकारियाँ अंकित रहती हे । उन जानकारियों के आधार पर जनहित की योजनाएँ बनाने, लागू करने तथा व्यक्ति विशेष को उसकी योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार जिम्मेदारी अथवा सहायता देने में सुविधा होती है । विदेशों से चोरी छिपे घुस पैठ करने वालो पर भी सहज ही अंकुश लगाया जा सकता है । एक बार यह व्यवस्था लागू हो जाये तो फिर उपक्रम को चलाते रहना कठिनाई नहीं होता ।

उक्त उद्देश्य से जनगणना के साथ व्यक्ति की योग्यता, शिक्षा, सम्पत्ति, सुनिश्चित पहँचान के रूप में उगलियों की छाप आदि तमाम तथ्यों का अंकन कराना होगा । इन जानकारियों के साथ व्यक्ति की जाति भी नोट करने का प्रस्ताव है ।

इस संदर्भ में खुली चर्चाए हो रही है यह प्रजातान्मिक व्यवस्था के लिए अच्छी बात है । यदि पहँचान सुनिश्चित करनी है तो उँगलियों के निशान लेने ही होंगे । यउि जातियों के नाम पर आरक्षण देते रहना है तो जाति का अंकन जरूरी है । एक बार सुनिश्चित अंकन हो जाने पर सुविधाओं के लालच में झूठे जातिगत प्रमाण पत्रों का काम तो रुक जायेगा । यदि राजनैतिक पार्टियों में जातीयता की अपेक्षा राष्ट्रीयता महत्त्व देने का नैतिक साहस जागे तो फिर उसकी जरूरत नही है । नागरिकों के भौतिक अधिकारियों उस स्थिति में व्यक्ति की जाति अंकित है या नहीं इसका महत्त्व नहीं रह जाता ।

महत्त्व इस बात है कि सामाजिक स्तर पर लोगों के मन मस्तिष्क में जातीयता का विष किस रूप में जमा बैठा है? राजनेताओं और राज नैतिक पार्टियों की सोच में जातिवाद की आग पर स्वार्थ की रोटियाँ सेकने का भूत उतरा या नहीं ।

पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि राष्ट्र की मूल चेतना इस भेद के विष को निरस्त करने में लगी उसे देर सबेर समाप्त होना ही है । जो व्यक्ति एवं संगठन इस युग प्रवाह के साथ सहयोग करेंगे वे वास्तव में लाभ में रहेंगे । जो स्थाई हितों की जगह तात्कालिक स्वार्थों को महत्त्व देंगे वे अन्ततः घाटे मे ही रहने वाले हैं । इस तथ्य को ध्यान में रखकर, राष्ट्रहित को प्राथमिकता देते हुए विचार एवं व्यवहार करना सभी के लिए हितकर सिद्ध होगा ।

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