ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Friday, September 30, 2011

मूक समाज में जान की कीमत सिर्फ 27 रूपए !

दो जुनूनियो ने 'बीमारू' राज्य से वैभव नगरी गुरुगाँव मजदूरी करने आये, एक टोलकर्मी को महज इस लिए मार दिया क्यूंकि वो उनसे टोल मांगने की हिमाकत कर रहा था. वैसे समाज के लिए ये एक और न्यूज़ स्टोरी है


जान की कीमत लगा दी गई है मात्र २७ रुपये, इससे सस्ती कीमत पर आपको जान इस महंगाई के युग में कही नहीं मिलेगी. यहाँ इस जूनून के बाज़ार में जान सुलभ है, यहाँ हर तरह की जान मिल जायेगी, तरह तरह से ली जाने वाली जान बन्दुक गोली , तलवार, त्रिशूल, मजहबी जूनून, रोड रेज, या दहेजी सब उपलब्ध है. इस बाज़ार में संवेदना, पीड़ा दुर्लभ कमोडिटी है तब ऐसे में जुनूनी करें भी तो क्या करें व्यापार तो करना ही है ना, सो जान का कारोबार ही सही.

इस मार्केट में किसी ने ये नियम नहीं लिखा की की जान लेना पाप है, जान की कीमत लगाना गुनाह है. इस बाज़ार में इंसानियत शर्मिंदा होना किसी को मालूम नहीं यहाँ इंसानियत के वजूद को अभी जन्म लेना है. अभी वक़्त आना है की किसी बेवा, माँ या मजलूम बच्चो के बारें में सोचा जा सके, असल में हमारी तिजारत शुरू ही वह से होती है जहा इन जैसे मजलूमों की मजबूरियाँ का आगाज़ होता है .

कुछ लोग चाँद सी उंचाई को तय कर चुकें है और कुछ नैनो तकनीकि जैसे सूक्ष्म हो गयें है पर शुक्र है इस जुनूनी बाज़ार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है यहाँ आज भी जुनूनी जात-पात , उंच-नीच , धर्म-बिरादरी, झूठी- शान रिवायत के आदिम युग में है जहाँ इंसान ही इंसान का शिकार कर रहा है और सरलता से जाने मुहैय्या करा रहा है.

ये 'मानवता' नामक केमिकल लोचा ही असल में सब बुराइयों की जड़ है, पर इससे किसी जुनूनी पर इसका कोई असर नहीं होता. इन पर जब भी मुश्किलें या जूनून सवार होता है ये बंदूक ले स्कूलों में फायरिंग कर देतें है या चुपकें से कही धमाके कर हजारो को बिलखता छोड़ निकल जाते है, इन्हें तो बस जाने चाहियें. इनकें यहाँ अभी भी गीता कुरान का पाठ या इंसानी हकूको के मतलब समझायें जाने जरूरी नहीं समझे गए है. यहाँ कोई किताब ये नहीं कहती की एक बेगुनाह को मारना पूरी इंसानियत को मारने के समान है.

लेकिन फिर भी ये जुनूनी उन समाजो से बेहतर है जो इन सब बातों को पढने लिखने सुनने और मानने का दावा करतें है पर इंसान की जान को रद्दी समझतें है. ये ऐसे सफेदपोश जुल्म करते है की बदस्तूर हिटलर, लादेन, सद्दाम, प्रभाकरण दिए जा सके. ये सफेदपोश है अभिजय्त्य है सत्तासुधा प्राप्त है वे इन जुनूनियों पर जंगली होने का आरोप लगाते है पर वे सब भूल जाते है की वे ज्यादा बडे गुनाहगार है. वे सब चुप खड़ें रहतें है जब कोई दसें का शिकार हो छटपटाता सड़क पर पड़ा रहता है, वे चुप रहतें है जब अपाहिज कन्या, रेल कम्पार्टमेंट में रुसवा होती है, वे चुप रहतें है, जब कभी कोई 'सनकी भीड़' मजलूमों पर टूट पड़ती है वे घरो में दुबक जातें है, क्योंकि वे भगत सिंह या संदीप उन्नीकृष्णन नहीं, वे 'सभ्य' है.

झाँके, निहारे अपने को आइने में, और पूछे अपने आप से क्यों हज़ारो की भीड़ महिलाओं को नग्न कर घुमाती है, क्यूँ पुलिस अधिकारी एक विक्षिप्त को पीटता है तब हम ताली बजाकर मजा लेतें है, फिर क्यों हम उस जुनूनी को इंसानियत का दुश्मन कहें जो इंसानी जान को २७ रुपये के मोल में तौलता है.

क्या उस टोल पर गाड़ियों की कतार में कोई इंसान नहीं था, क्या भरी टोल पर हर कोई जुनूनी था जानवर था या सारे अंधे वहां गाड़ी चला रहे थे, ये सवाल है उस तीन महीने की सुहागन जो अब विधवा कहलाने को अभिशप्त होगी, उस सभ्य समाज से जो उस जुनूनी से ज्यादा पाक साफ़ है. मानो वो जुनूनी इन खामोश सभ्यों के मुंह पर तमाचा मारकर कह गया हो तुम लोग ख़ाक जीतें हो, यूँही कहतें हो जान अनमोल है बेशकीमती है कहतें है. ये दुनिया तुम्हारा नहीं हमारा बाज़ार है और यहाँ जुनूनी कानून ही चलेगा, जब चाहें जैसे चाहें जान की कीमत लगा सकतें है. गोया तुम्हारें सफेदपोश उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है, दहकती सुबह ,खौलता आसमाँ है, तुम्हारी खामोशी की रोशनी में बहुत इनकी आस जी चुकी हैं

http://www.youtube.com/watch?v=MoNb3vx94gE

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