ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Monday, October 8, 2012

गाँधी की राह पर दिल्ली के दीवाने ..



गांधी जी ने देश के तट पर बिखरे नमक को देश की जनता से जोड़कर सात समुन्दरो तक फैले ब्रिटिश हुकूमत की मनमानी को चुनौती दे दी, कद में केजरीवाल बेशक गांधी ना हो पर कालोनियों में बेतरतीब तारो के जाल में जबरदस्ती तार जोड़कर वे ऐसी ही कोशिश बिजली कंपनियों की मनमानी पर कर रहे है. अब देखना है की शिंदे जी की दिल्ली पुलिस कब तक बर्दाश्त करती है.

वैसे कपिल सिब्बल के खिलाफ किरण बेदी, संदीप दीक्षित के खिलाफ केजरीवाल , सज्जन के भाई रमेश कुमार के खिलाफ मनीष शिशोदिया अगले लोकसभा में भाजपा कांग्रेस को संयुक्त रूप से झटका दे सकते है और शीला के बाद भाजपा से विजय गोयल के मुख्यमंत्री बनने के सपने पर भी चोट कर सकते है इसी को भांप विजय गोयल तो केजरीवाल के साथ बिजली दफ्तर हाजरी लगा आये, कांग्रेस भाजपा के 'केजरीवाल' फैक्टर के डर को देख खुश है.

दिल्ली के अलावा काम करने से नुक्सान ही होगा क्यूंकि 'सब चोर है' की विचारधारा यही चल पायेगी . श्रमिक आन्दोलन, सामाजिक न्याय , परिवार व् सामन्ती परंपरा के अलावा अब नेता मीडिया से भी निकलते है, जिनका स्तर व् असर मीडिया की व्यापकता पर निर्भर होती है. मीडिया के बाबु जो हार्वर्ड या कर्नीज से पढ़कर आये है उनकी मुश्किल को भी समझिये, रुरल टूरिस्म तक तो ठीक है पर सरोकार की बात मत कीजिये जब नेता, इंजीनीयर डाक्टर, अध्यापक, प्रशासक ही नहीं जा रहे तो मेनस्ट्रीम के बड़े पत्रकार क्यों जाए भला, इसलिए नुक्कड़ में लंगर डाल कर बिजली लेना भी खबर है और जल में पैठे पाँव की पंद्रह दिन की गलन भी कम है. वैसे भी विज्ञापन टी वी और अखबार शहरीयो के लिए है गाँव की जरुरत ही क्या है.

भ्रष्टाचार की किसी भी लड़ाई, आवाज या राजनीतिक पहल की हार के प्रति हम कितने आश्वस्त है ये अरविन्द केजरीवाल के प्रयासों को फिसड्डी साबित करने के हमारे प्रयासों से पता चल गया.

सामाजिक संगठन से राजनीतिक संगठन की बात चली है तो इतिहास भी टटोला जाय बसपा के उद्भव के पीछें एक सामाजिक संगठन की कितनी बड़ी भूमिका है ये किसी से छुपा नहीं, जनसंघ भी संघ से निकला, भारत में भी विश्व भर की तरह या तो फेथ बेस्ड एन०जी०ओं० है या फिर साम्यवाद बेस्ड एन०जी० ओं० है, इन साम्यवादी एन०जी० ओं० के जनांदोलन और फिर बाद में उन्ही आन्दोलनों से राजनीतिक दखल भी किसी से छुपा नहीं. कोई भी संगठन आपसी विशवास व् सम विचारों से बढ़ते है, पैसे से पल्लवित होते है और राजनीति से सत्तानाशीन होते है.

आज कल की विकल्पहीन सियासी परिदृश्य में दो ही राह है, या तो अजित दादा को थाम लीजिये या फिर गडकरी को दोनों को नहीं थाम सकते तो साम्यवादी हो जाइए, जिसके अपने घाटे है इसमें बुद्धिजीवी मिल जायेंगे पर माध्यम वर्ग नहीं. अब माध्यम वर्ग ना होने की त्रासदी क्या होती है ये आजादी के वक्त पलायन से उन्हें खो चुके मुस्लिम समाज से पूछिए, इसलिए मुझे तो माध्यम वर्ग की इस कोशिश पर यकीन है. संदेह है तो बस संगठन के विस्तार पर है उसके लिए सरदार पटेल या दीनदयाल उपाध्याय कहा से लायेंगे केजरीवाल...

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