कांग्रेस पार्टी की सबसे ताकतवर नेता और अध्यक्ष सोनिया गांधी जी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा भारत के चंद प्रतिभाशाली लोगो में है जो व्यसाय खासकर रियल एस्टेट की दुनिया में उभरता सितारा बनकर उभरें है. राजनेताओ के रिश्तीदारो ने राज पदों पर मुनाफ़ा कमाया हो यह कोई नयी बात नहीं पडोसी मुल्क में आसिफ अली ज़रदारी को बेनजीर के शासनकाल में मि० टेन परसेंट कहलाते थे, संजय गांधी ने जिस तरह मारुती में भूमिका निभाई कुछ कुछ वैसी ही व्यावसायिक भूमिका इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो के पुत्र हुतोमो ''टोम्मी '' मंडलापुत्र ने निभानी चाहि जिसके फलस्वरूप उन्हें राष्ट् से भगोड़ा तक घोषित होना पड़ा, खुद राजनीति में आने से पूर्व राहुल गांधी अपनी आई टी कंपनी चला चुके है .
हैंडीक्राफ्ट और कस्टम ज्वैलरी का सामान्य व्यवसाय करने वाले राबर्ट ने धीरे धीरे रियल्टी सेक्टर में एंट्री की जिसमे उनकी मदद देश के सबसे बड़े प्रॉपर्टी डेवलपर डीएलएफ ने की, जिसने ना सिर्फ तथाकथित रूप से अडवांस या बिना गिरवी रखे कर्ज दिया साथ ही कंपनी ने रॉबर्ट का अपना हिस्सेदार भी बनाया. बस इसी बात से लैस होकर गांधी जयंती से नेता बने अरविन्द केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस कर जनता के सामने ये तथ्य रख कर दावा किया कि वाड्रा की पांच कंपनियों ने बिना कोई कारोबार किए 50 लाख रुपये लगाकर 300 करोड़ की जायदाद अर्जित कर ली है जिसके प्रमाण के रूप में वे कंपनी शुरू करते वक़्त पूंजी जिसका विवरण वाड्रा ने कंपनी पंजीयक के दस्तावेजो में की है. तीन साल में वाड्रा के पास 300 करोड़ की संपत्ति आ गई, जिसकी मौजूदा बाजार कीमत 500 करोड़ बलाई जा रही है बस यही बात इस पूरे मामले को संदिग्ध बना देती है. ओलम्पिक में मेडल से लेकर अर्जुन टैंक बनाने तक में हम दशको का समय ले लेते है तब ऐसी कौन सी विद्या से लैस होकर वाड्रा ने इतने जल्दी इतना ऐसेट बना लिया है और बना भी लिया है तो कैपिटल गेन टैक्स का क्या ? रखे रखे तो नाहे भाव बढ़ गए ये तो बेचें खरीदने की लगातार प्रक्रिया से बढ़ते है तब टैक्स तो बनता ही है.
बात को और साफ़ करें तो देखेंगी की बैलेंस शीट के मुताबिक़ डीएलएफ ने बिना किसी गारंटी या ब्याज के वाड्रा को 65 करोड़ रुपये दिए और फिर उसी रकम से उन्होंने डीएलएफ की ही जायदाद मार्किट मूल्य से काफी कम भाव में खरीद ली जिसमे कंपनी ने गुड़गांव के मैग्नोलिया अपार्टमेंट में सात फ्लैट वाड्रा की कंपनियों को महज 5.2 करोड़ में दे दिए जिनका बाजार भाव कम से कम 35 करोड़ था. एक अन्य सौदे में औरोलियाज अपार्टमेंट में एक पेंटहाउस सिर्फ 89 लाख में दे दिया, जिसकी कीमत बाज़ार में करीब 20 करोड़ थी, यहाँ तक की ना जाने कौन सी मजबूरी में इतने पैसे होने के बावजूद कंपनी ने अपना दिल्ली के साकेत स्थित डीएलएफ हिल्टन गार्डेन होटल की 50 फीसद हिस्सेदारी सिर्फ 32 करोड़ में वाड्रा को बेंच दी जबकि उसका बाज़ार भाव 150 करोड़ था.इस बात को लेकर भाजपा प्रवक्ता ने भी चौका लगाते हुए पूछा 'कांग्रेस सरकारों ने डीएलएफ को सस्ते में जमीन दी और बदले में डीएलएफ ने वाड्रा को फायदा पहुंचाया। डीएलएफ वाड्रा के लिए इतना उदार क्यों थी? इसकी जांच होनी चाहिए'.
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते है जब मीडिया ने देश से सामने उजागर किया था की अपना जीवन नॉवल बेचने और वीसीपी किराये पर देकर चलाने वाला गोपाल कांडा जैसे ही गुडगाँव के रीयल एस्टेट के धंधे में आया रातो रात अरब पति बन गया था. उस वक़्त उसने गुड़गांव की सिकंदरपुर मार्बल मार्केट को कोर्ट के आदेश के बाद अलग जगह विस्थापन कर नए प्लॉट आवंटन में काफी माल बनाया अब जाहिर है ये सब उसने बिना सरकारी सहयोग के तो किया नहीं होगा क्यूंकि जमीन सरकार की थी.
आम आदमी के नाम पर अपना पर अपना अपना हिस्सा समेट कर नेताओं ने संसद चलने नही दी पर आम आदमी
एक अदद घर के लिए किस कदर से हैरान परेशान है उसका मुजाहिरा आवेदनों की संख्या से लगती है,इस समस्या से निपटने के लिए सरकारें विवश है सो निजी क्षेत्र को आगे बढाया जाना जरुरी था. अब हमारे यहाँ प्रक्रिया इतनी मजबूत
बनती है की उससे कामकाज ठप्प सा हो जाता है सो निजी क्षेत्र भी मजबूर हो जाती है और मजबूरी निचले पायदान के अफसरों के लिए आय का स्त्रोत बन जाती है. निजी क्षेत्र में जो कंपनिया मजबूर नहीं होती वे सरकार से ज़मीन मजबूर करके ले लेती है और इसी मजबूरी को पैदा करने के लिए रसूखदार और रियल एस्टेट कंपनिया मिल जाते है.
इस माह सरकार ने रियल एस्टेट को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है पर कानूनी ढांचा काफी लचर है रीयल एस्टेट से जुड़ा बिल संसद में धुल खा रहा है . पहले नोयडा एक्स्टेंशन के किसान मुआवजे के विवाद में फंस जाने से हदासे हुए लोग अब वहा बेताहाशा मूल्य वृद्धि से तंग है, दबी छुपी जुबान में कुछ लोग कह रहे है बिल्डरों के द्वारा 'बक्षीश' देने की वजह से ये अप्रत्याशित महंगाई आयी है. लगभग सभी बिल्डर अपने नॉयैडा प्रॉजेक्ट्स मे एक तरफ़ा अग्रीमेंट बना रहा है. किसी भी बाइयर के पास कोई अधिकार नही है सिवाय उनकी शर्तो को मानने और साइन करने के. कोई भी बिल्डर नही बताता की सर्विस टॅक्स और स्टंप ड्यूटी किस किस चीज़ पर लगेगी और उनकी दर क्या होगी. बिल्डिंग प्लान, साएट प्लान, लोकेशन प्लान, मास्टर प्लान, फ्लोर प्लान, ले आउट प्लान मे क्या फ़र्क है इसकी जानकारी लिखित मे कोई नही दिखाता. पर्यावरण क्लियरेन्स, सेफ्टी क्लियरेन्स और बाकी जानकरी तो बिलकुर नही मिलती. टोटल क्लियरेन्स कितनी होती है और बिल्डर कितने क्लियरेन्स ले चुका है बाइयर को कुछ नही पता. सूपर एरिया तो सभी बताते है लेकिन लगभग कोई भी ऐक्चुयल कार्पेट एरिया नही बताता. बहुत गड़बड़ है सिस्टम मे पर अपनी टैक्स की दर को आसानी से बढाने वाली सरकार सुप्त है, इससे उसके खजाने को नुक्सान और चुने हुए 'सरकारों' को फायदा हो रहा है. इस सरकारी उदासीनता के मद्देनज़र जनता को बस न्यायालय , कॉम्पिटिशन कमिशन ऑफ इंडिया व् ग्राहक फोरम से ही आशाएं है.
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