ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Monday, October 8, 2012

नज़र रखिये पर नज़रिया बदलिए

बायें डॉ  इब्राहीम  अली  जुनैद और दाए अब्दुल  रहीम दोनों मक्का माजिद मामले बरी हुए है
 'सत्ताधारी पार्टियों का सशस्त्र धड़ा' नाम से पुलिस की भूमिका पर अंग्रेज़ी अखबार में कई वर्ष पूर्व वेद मारवाह अपनी चिंता व्यक्त कर चुके है., पुलिस फ़ोर्स की राजनीतिकरण की पुरानी बिमारी की वजह से ही आज गुजरात में धर्म के नाम पर तो यूपी में बहुजन और पिछड़े के नाम पर बंटी पुलिस, विधायिका के आगे बेहद मजबूर है.  ख़ुफ़िया एजेंसियों के ऊपर पिछले कई दिनों से सांप्रदायिक होने के आरोप लग रहे है ख़ास तौर पर हैदराबाद  व् मालेगांव में युवको के कोर्ट द्वारा बरी किये जाने के बाद तो ये बात राष्ट्रीय चिंतन में भी आयी थी. इसी माह जामिया नगर में पुलिस पार्टी का जनता ने जम कर विरोध किया, मसूरी की घटना के विषय में भी कईयों का मानना है की वहा भी स्तिथियाँ     बेहतर तरीके से निपटी जा सकती थी.

 राज्य सत्ता के अंदर तक साम्प्रदायिकता घुसी हुई है- जब कोई अपने दशको के अनुभव के बाद अम्बरीश कुमार सरीखा वरिष्ठ पत्रकार ये बात लिखे तब ये हमारे लोक तंत्र  के लिए वाकई गंभीर बात है. उनकी इस बात की   तस्दीक आज  सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भी करते हुए कहा, “जिला पुलिस अधीक्षक, महानिरीक्षक और अन्य अधिकारियों को ये जिम्मेदारी दी गई है कि वो कानून का किसी भी तरह दुरुपयोग न होने दें और इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि किसी निर्दोष व्यक्ति को ये नहीं लगना चाहिए कि उसे ‘माय नेम इज खान बट आई एम नॉट टेरेरिस्ट’ की वजह से सताया जा रहा है.”

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