ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Monday, October 8, 2012

हाय री नीतियाँ


देश को चलाने की व्यवस्था बड़ी जटिल होती है इसी लिए उसको चलाने वाली सरकारों का संकट भी बड़ा विचित्र होता है. देश को चलाने की रूपरेखा तो संविधान ने तय कर दी है, संसदिय प्रणाली के द्वारा देश चलाने वाले इसकी मूल भावना के अनुरूप द
ेश की समस्याओ-विकास के लिए नीति निर्धारित करते है. इन्ही नीतियों को कार्यपालिका लागू करवाती है और न्यायपालिका इन नीतियों के विरुद्ध हो रही चीजों पर के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करती है, इसी तंत्र- व्यवस्था या सिस्टम को लोकतंत्र कहते है. संसदीय प्रणाली लोगो के चुनाव से तय होती है, यानी देश सही मायनों में जनता के द्वारा चलाया जा रहा है.अब आज मुद्दा इस बात का नहीं की सरकार चलाने वाले खालिस नहीं या लागू करने वाली कार्यपालिका खालिस नहीं या संसदीय प्रणाली खालिस नहीं ये चर्चाये समय समय पर होती रही है, मुद्दा आज ये है की क्या सरकारों की नीतियाँ खालिस है की नहीं ?

कई लोग देश में आजकल ये मान रहे है की खुदरा परचून की दूकान चलाने के लिए किसी बिल या माइक की जगह पप्पू या लालाजी ही ठीक रहेंगे तो ये उनका मत है सरकार का नहीं बहुत संभव हो की ये सही हो, पर इस बात पर देश का विपक्ष सहमत नहीं. बौद्धिक जगत में भी अधिकतर लोग कह रहे है की ये उदारवाद नहीं बल्कि उधारवाद है, कभी सहयोगी रही ममता तो पूछ रही है 'मैं पूछना चाहती हूं कि आम आदमी की परिभाषा क्या है? लोकतंत्र की परिभाषा क्या है? क्या यह साफ नहीं है कि आम आदमी का नाम लेकर सत्ता का दुरुपयोग किया जा रहा है? आम आदमी को खत्म किया जा रहा है। क्या यह सोची समझी चाल नहीं है?'. ममता की अलग मजबुरिया है कल तक वे भी सिंगुर में टाटा का विरोध लोकलुभावन बातो के लिए कर रही थी. अब हर सरकार चाहती है की वो जनता के लिए कल्याण की योजनाये चलाये पर पार्टियों -नेताओं पर गिरते विशवास के चलते ज्यदातर लोक कल्याण की नीतियों का स्थान लोकलुभावन नीतियों ने ले लिया है.

पत्रकारिता जगत में पहले ममता बैनर्जी को जानने वाले आनंद बाज़ार पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार जयंत घोषाल कह रहे थे की सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली यूपीए के 8 साल से चल रहे कार्यक्रम सब लोकलुभावन है आज 'फर्स्ट पोस्ट पत्रिका' के वेंकी वेम्बू लिख रहे है की कल के मनमोहन सिंह के भाषण में एक जरूरी तत्त्व है " पैसा पेड़ पर नहीं उगता नहीं " ये बात सही है तो ये बात सोनिया गांधी पर भी लागू होती है जिनकी लोकलुभावन नीतियों के लिए भी पैसा कही पेड़ से नहीं उगेगा. अपनी इसी बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने 2014 लोकसभा चुनाव से पहले लाये जाने वाले 'राईट टू फ़ूड' जैसा खर्चीला अर्थव्यवस्था की कमर तोडू प्रोग्राम का जिक्र किया है. ये गौरतलब बात है की सरकारों के महंगे कार्यक्रम ज्यादातर लोकलुभावन होते है ये चुनावी संसदीय प्रणाली की मजबूरी भी है कोई नरेगा के माध्यम से अपने वोटरों को सीधे पैसे बाँट रहा है तो कोई बेरोजगारी भत्ते के नाम पर उन्हें अपना समर्थक बना रहा है कोई कम्यूटर तो फ्रिज तो कोई कलर टीवी बाँट रहा है, आखिर ये पैसा आता कहा से है , कभी खुदरा को खोदकर, कभी कोयले के आवंटन को काला कर कभी चुनाव से पहले किसानो की क़र्ज़ माफी करके चुनाव बाद रासायनिक खाद से सब्सिडी हटाकर ये काम किये जाते है.

एक प्रश्न यहाँ बड़ा ही सामयिक हो जाता है की 'क्या अच्छे लोग भी नीतियाँ चुनाव को ध्यान में रखकर बनाते है?'. शायद हां, वे देख चुके है की स्वर्णिम चतुर्भुज बनाने वाली अटल सरकार उन बिहार को छोड़ अन्य राज्यों में हार गयी जहां वे बने थे. चुनावी मजबूरियों के कारण देश का नेतृत्व ऐसे फैसले लेता रहेगा इसलिए अब जनता स्वयं तय करे की नीतियाँ लोकलुभावन होने चाहिए की लोक कल्याण वाली ???

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