ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Monday, October 8, 2012

बस विरासत है गाँव, जहा जाना एक पिकनिक है ?


शहरियों के लिए रुरल टूरिस्म बन गए है गाँव, जहा से निकले लोग गाँव कभी लौटे ही नहीं अगर लौटते भी है तो वो संस्कृति से जुड़ाव, शहरो में सामाजिक रूप से हाशिये पर होने के बाद अपनी सामंती जीवन शैली को याद करने के लिए , पर अफ़सोस गाँव भी अब वैसे नहीं रहे सामंती ठसक पुरी कराने के लिए मिलने वाले लोग अब मुंबई- दिल्ली, सूरत लुधियाना के कारखानों में अपना भविष्य टटोल रहे है. युवाओं से शुन्य होते गाँव भी अब किसी विवाह के बैंक्केट हाल के सामान हो गये है जहाँ लोगो का शादी ब्याह के वक़्त ही जमावाड़ा लगता है. जो वह है खुश नहीं है कृषि लागत बढ़ चुकी है, सड़के या तो पहुंची नहीं है या पहुँच कर भी क्रेटरमयी है,अगर किसी की तबियत बिगड़ जाए तो अस्पताल तक पहुंचना ओलंपिक मेडल की दौड़ के सामान हो जाता है . 6 से 7 घंटे बिजली में किसानी ढंग से होती नहीं तब बच्चे कैसे विकासपुरी, मयूर विहार, हौजखास या डिफेन्स कालोनी वालो की तरह पढाये जायेंगे, फिर अच्छे माध्यमिक विद्यालयों तक जाना अपने आप में जंग है. सोनू मोनू की तरह स्कूल वैन नहीं, 10 से 12 किलोमीटर सायकिल से जाना पड़ेगा दो लोग हो तो साथ में खींचो घर आकर गाय-गोरु रखाओ. माँ बाप की कमाई अच्छी है तो पढने के लिए पटना इलाहबाद तो पहुँच जायेंगे पर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए सहायता नहीं जुटा पायेंगे अंत में शहरो में मजदूरी मिल ही जायेगी. कुल मिलाकर ना पढ़ सकते है , ना खेती हो रही है, ना आमदनी ही है बस अगर कुछ है तो शाम को बैठकी, भिन्नई की गलचौरा और संस्कृति से जुड़ाव ऐसे में जब जमाने को होनोलूलू से लेकर हार्वर्ड जाते देखते है, सरकारी ओहदेदारों को किन्ही के आगे नतमस्तक देखते है तब व्यर्थ ही अपनी संस्कृति सहेजने की जिम्मेवारी पर कोफ़्त होता है, गाँव में घर और खेतीबारी की जिम्मेवारी पर कोफ़्त होता है

दिलीप मंडल जी ने इस पीड़ा पर तंज करते हुए लिखा है "भारत माता ग्रामवासिनी... जिस किसी ने भी लिखी है, वह पक्का शहरी आदमी होगा. उसे ही खेतों में फैला आंचल नजर आ सकता है. गांव को लेकर रोमांटिक होना खास शहरी शगल है. खुद शहर की सुविधाओं का इस्तेमाल करो और गांव के गीत गाओ. ऐसे लोग हवा बदलने के लिए या पिकनिक मनाने या अपनी सामंती ठसक का जलवा देखने कभी कभी गांव जाते हैं."

गांव की समरसता आज भी वहा की जान है वरना गाँव की झोंपड़िया कब की शहरी उपेक्षा की मिसाल झोपड़पट्टी बन जाती , फिर जातिगत श्रेष्ठता की संरंचना की पकड़ वहा भी काफी हद तक कमजोर हुई है जिससे वह सामाजिक न्याय की परंपरा और सुदृढ़ हो रही है. गांधी जी ने कहा था की गाँव में भारत की आत्मा बस्ती है सो गाँव  का आज भी विकल्प नहीं, हम कितने  शहरों की, कहाँ  कहाँ व्यवस्था करेंगे,उनमे भी  जिन्हें हम आज शहर कह रहे हैं, उनमे भी कई झोपड़ पट्टियाँ हैं जिनकी  दशा उन गावों से भी बदतर है.अंततः  गाँव ही हमें अन्न व् अर्थ को  और भविष्य की  विशाल आबादी को संभालेंगे इस लिए वक़्त आ गया है के सरकार अपने गाँव का ख़ास ध्यान दें

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