ब्लाग्मंत्र : जिस तरह आंसू के लिए मिर्च जरूरी नहीं, वैसे ही बुद्धिमता सिद्ध करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमेंट्स व् उच्च्श्रलंखता जरूरी नहीं

Monday, October 8, 2012

पर्वो -तिथियों, स्मारकों, व् राष्टीय छुट्टियों में फंसी आस्थाएं





आम्बेडकरी आन्दोलन को ताबूत से निकाल कर सिंहासनतक पहुंचाने वाले बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि पर उत्तर प्रदेश सरकार ने एक फैसले के तहत सार्वजनिक अवकाश समाप्त कर दिया है. अपने संस्थापक की सार्वजनिक सफलता और बढ़ते कद के चलते बसपा सरकार ने पार्टी के संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि नौ अक्तूबर को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया था, हालांकि उस समय भी जानकार इसे एक गाँव गाँव में आंबेडकर की मूर्ति लगाने की तरह ही एक राजनितिक अजेंडा मान रहे थे.

एक समय में लोग नयी दिल्ली के प्रतिष्ठानों की बजाय नोयडा में ट्रांसफर करवाना चाहते थे कारण इस अत्याधिक पिछड़े हुए राज्य में हर बात पर प्रचुर छुट्टियों का होना था. ऐसे समय में राज्य सरकार का ये फैसला नीतिगत रूप से सही जान पड़ता है पर जमीनी हकीकत इससे इतर है. बसपा इसे दलित विरोधी मानसिकता का नाम देकर अपने वोट बैंक को अपने आदर्श के प्रति राजनितिक असम्मान की पुकार कर चुकी है, तो समाजवादी पार्टी बसपा से नाखुश लोगो को फुसला रही है. बसपा के प्रवक्ता ने यहाँ तक कह डाला की " उत्तर प्रदेश की सरकार अगर महापुरषों का सम्मान नहीं कर सकती तो वह उनके साथ खिलवाड़ भी न करे और बेजा हरकतों पर अंकुश लगाए", साथ ही पार्टी ने राजधानी लखनऊ में पहले ही तय कार्यक्रम कर एक विशाल रैली आयोजित की है.


राष्ट्रीय प्रतिष्ठानों में, राष्ट्रीय छुट्टियों में व् पर्वो में दलित-आदिवासी तत्व (मसलन बिरसा मुंडा, इ० व० रामासामी ' पेरियार ') की जबरदस्त नज़रंदाज़ी के बाद भी डॉ आंबेडकरको यथोचित सम्मान दिया गया है. इसी वंचित भाव के प्रतिकार स्वरुप खड़ा हुआ बहुजनवाद की एक धारा दलित -आदिवासी को एक नए वर्ग के रूप में मौजूदा समाज से तोड़कर देखती है. इसी प्रयास में नए नए मान्यताएं, आदर्श बनाये जा रहे है इतिहास का पुनर्पाठ भी उसी कवायद का हिस्सा है. ऐसे विचार पिछले 40 साल पहले पेरियार के समय से निरंतर आगे आते रहे है, ये पहचान राजनीतिक रूप से भागीदारी को भी सुदृढ़ कर चुकी है. आज उत्तर में बसपा, दक्षिण में द्रमुक और मध्य में कमलनाथ को चने चबवाने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी अपने सफल अभियान पर है यानी कुल मिलाकर नई पहचान राजनीतिक दलों के वोट बैंक को बनाने में भी सहायक हो रहे है. रीवर्स जातिवाद के आरोपों से हटकर भी देखें तो पायेंगे की सामाजिक न्याय समाज से कटकर तो नहीं मिलता. ऐसे में गढ़े हुए नए आदर्शो का सम्मान वृहद समाज के लिए मुश्किल होता है, इस समाज ने अपनी बनायी मान्याताओ के इतर भी कई बार चीजों को अपने में समाहित किया है. सनद रहे कुल परिवार के ज्ञात ना होने पर भी गौतम मुनि , कबीर को सर माथे बिठाया है, युवास्था में परिवार त्याग करने वाले सिद्धार्थ के मूल्यों को आदर्श बनाया है, मुंड हरने वाले अंगुलिमाल की कथा बच्चो को सुनायी है, रहीम-रसखान के लिखे को तुलसी-सूर की तरह पवित्र माना है. इन अनुभवों से लगत है जो सारे समाज के लिए महत्वपूर्ण होगा उसी स्वीकृति समाज खुद दे देगी उसे किसी राजकीय सहायता की आवश्यकता नहीं होगी , फिर उसकी राजकीय मान्यता के लिए व्यर्थ संघर्ष पथ पर जाना ही नहीं पडेगा.

अगर राष्ट्रीय स्तर पर सारी महान विभूतियों को जोड़ा जाये तो संख्या सौ से ज्यादा होगी पर आर्थिक भागीदारी राजनितिक भागीदारी के बाद अब सांस्कृतिक भागीदारी भी आत्मविश्वास के लिए जरुरी है, इस सांस्कृतिक भागीदारी के लिए क्या कीमत हो वो समाज खुद तय करेगा राजतन्त्र नहीं. आगरा में आंबेडकर जयन्ती किसी भी अन्य पर्व से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है तो ये समाज ने तय किया है राजसत्ता ने नहीं, आपके प्रश्न में ही उत्तर भी निहित है अगर भागीदारी के लिए आप जगह सुरक्षित कर सकते है तब राष्ट्रिय व् क्षेत्रीय आधार पर सांस्कृतिक तिथि पर्वो में भी उसी परिपाटी को निभाना होगा, संख्या महत्वपूर्ण नहीं .


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